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________________ [४४ . इस गाथा में मूल में “पाएण समा कहिं विसमा" ऐसा अन्तिम चरण है। उसका अर्थ यही है कि कहीं २ द्रव्यवेद और भाववेद में विषमता भी पाई जाती है। प्रायः समता पाई जाती है। इसी का खुलासा टीकाकारने किया है। यथा ऐते द्रव्य-भाववेदाः प्रायेण प्रचुरवृत्या देवनारकेषु भोग-भूमि-सर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समाः, द्रव्यभावाभ्यां समवेदोदयांकिता भवन्ति । कचित् कर्मभूमि-मनुष्य-तिर्यग्द्वये विषमा:विसदृशा अपि भवन्ति तद्यथा- द्रव्यतः पुरुषे भावपुरुषः भावस्खी भावनपुंसकं, द्रव्यस्त्रियां भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकं, द्रव्यनपुंसके भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसक इति विषमत्वं द्रव्यभावयोरनियमः कथितः। कुतः द्रव्यपुरुषस्य क्षपक श्रेण्यारूढानिवृत्तिकरण-सवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे सेसोदयेण वि तहा माणुवजुत्ताय तेदु सिझति' इति प्रतिपादितत्वेन संभवात् ।” इसका संक्षिप्त अर्थ यही है कि देवनारकी तथा भोगभूमि के तिर्यग्मनुष्योंमें जो द्रव्यवेद तथा भाववेद होता है वे दोनों समान ही होते हैं। परन्तु कर्मभूमिके मनुष्य तिर्यचों में विषम भी होते हैं । जो द्रव्यपुरुष हैं उसके भावपुरुष वेद, भावत्री वेद, भाव नपुंसकवेद तीनों हो सकते हैं। इसी प्रकार द्रव्यस्त्री के और द्रव्यनपुंसक के भी तीनों ही भाववेद हो सकते हैं। नीचे की पंक्तियों में तो और भी स्पष्ट कर दिया गया है कि
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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