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[४३ ] प्रारम्भ करने वाला, कर्मभूमि वाला ही होता है, वह भी मनुष्य ही होता है और केवली के पादमूल में ही उसका प्रारम्भ करता है। यहां पर ग्रन्थकार और टीकाकार दोनों ने "मनुष्य एवं" पद देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि द्रव्यवेदस्त्री क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारम्भ नहीं कर सकती है किन्तु पुरुष ही करता है। इस लिये जब क्षायिक सम्यक्त्व ही द्रव्यवेद स्त्री के नहीं होता है तब चौदह गुणस्थान व मोक्ष की बात तो बहुत दूर एवं सर्वथा असम्भव है।
प्रो० सा० ने जो यह बात लिखी है कि “गोम्मटसारके टीकाकारों ने यह बताया है कि जो मनुष्य द्रव्य-पुरुष होता है वह तीनों वेदों में से किसी भी वेद के साथ क्षायिक श्रेणी चढ़ सकता है। किन्तु यह व्याख्यान सन्तोषजनक नहीं है।"
उनके इस कथन से विदित होता है कि 'गोम्मटसार मूलमें तो द्रव्यपुरुष वेद के साथ तीनों भाववेद नहीं होते हैं। किन्तु टीकाकारों ने एक द्रव्यवेद के साथ तीनों भाववेद बता दिये हैं।' ऐसा प्रो० सा० समझ रहे हैं। परन्तु यह समझ भी उनकी मिथ्या है। कारण जो बात मूल गाथा में है उसी को टीकाकारों ने लिखा है। गोम्मटसार मूल गाथा में ही यह बात स्पष्ट लिखी हुई है कि द्रव्यवेद और भाववेद सम और विषम दोनों होते हैं यथा
पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरुसिच्छिसंढो भावे । णामोदयेण दवे पाएण समा कहि विसमा ।।
(गोम्मटसार जीवकांड पृष्ठ ५६१ गा० २७१)