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पंचमगुणस्थानं प्राप्नोति स्त्रीलिंगं हित्वा स्वर्गाने देवो भवति ततश्च्युत्वा मनुष्यभवमुत्तमं प्राप्य मोक्षं लभते । ( षट् प्राभृतादि संग्रह पृष्ठ ६६ ) अर्थात् - रत्नत्रय प्राप्त करके भी स्त्री पंचम गुणधान को ही प्राप्त करती है । फिर उस एक देश चारित्र एवं तपश्चरण द्वारा स्त्री लिंग का छेद करके स्वर्गो में देव पर्याय को पा लेती है, फिर देव पर्याय से च्युत होकर उत्तम मनुष्य भत्र को धारण कर मोक्ष पा लेती है ।
इसी के आगे भगवान् कुंदकुंद ने और भी युक्ति एवं प्रत्यक्ष अनुभवगम्य कथन कर स्त्री-मुक्ति का निषेध किया है ।
यथा
चित्ता सोहि र तेसि ढिल्लं भावं तहा सहावेण । विज्जदि मासा तेसिं इत्थीसु ण संकया भारणं ॥ ( पद् प्राभृतादि संग्रह पृष्ठ ६६ )
अर्थात - स्त्रियों के हर महीने में रुधिर - स्राव होता रहता है । इस लिये निःशंक रूप से उनके एकाग्र चिन्ता - निरोधरूप ध्यान नहीं हो पाता है । और यही कारण है कि उनके चित्त में परिपूर्ण रूप से विशुद्धि नहीं हो पाती है, परिणामों में शैथिल्य रहता है तथा व्रत पालने में अत्यन्त दृढ़ता भी नहीं हो पाती है । इसका कारण यही है कि जब शरीर में कोई मलिनता हो जाती है तब भावों में भी पूर्ण विशुद्धि नहीं हो पाती है।