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[ ३० ] स्त्री-मुक्ति विचार सर्वोच्च महर्षि भगवत्कुंदकुंदाचार्य ने स्त्री-मुक्ति के सम्बन्ध में कितना सयुक्तिक, महत्वपूर्ण विवेचन किया है। सबसे प्रथम हम अपने लेख में उसी का दिग्दर्शन कराते हैं
पाठकों को
लिंगंम्मिय इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणि सुमो काओ तासं वह होइ पवज्जा ॥
( पद् प्राभृतादि संग्रह ६८ )
अर्थ-स्त्रियों की योनि में, दोनों स्तनों के बीच में नाभि ( टुढी ) के भीतर तथा उनके दोनों भुजाओं के मूल में अर्थात्- कांखों में सूक्ष्म जीव - सूक्ष्म पंचेन्द्रिय पर्यन्त उत्पन्न होते रहते हैं। इस लिये स्त्रियों के जिन दीक्षा कैसे बन
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सकती है अर्थात - किसी प्रकार भी नहीं बन सकती । और भी भगवान् कुंदकुंद कहते हैं-
जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता । घोरं चरियचरितं इत्थीसु ण पावया भणिया ||
( षटू प्राभृतादि संग्रह पृ० ६६ )
अर्थ - स्त्री सम्यग्दर्शन और एक देश रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष मार्ग को भी धारण कर निर्मल एवं शुद्ध हो जाती है, घोर तपश्चरण भी ( विशिल्या के समान ) कर डालती है । तथापि स्त्री - पर्याय में जिन दीक्षा नहीं है । इसी गाथा की संस्कृत टीका में आचार्य श्रुतसागर लिखते हैं कि -