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[ २ ] "कर्म प्राभृत (षट्खण्डागम और कषाय प्राभृत) इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान, गुरु परिपाटी से कुंदकुंद पुर के पद्मनन्दि मुनि को प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण एक टीका ग्रन्थ रचा, जिसका नाम 'परिकर्म' था।
हम ऊपर बतला आये हैं कि इन्द्रनन्दिका कुंदकुंदपुर के पद्मनन्दि से हमारे उन्हीं प्रातः स्मरणीय कुन्दकुन्दाचार्य का ही अभिप्राय हो सकता है, जो दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में सबसे बड़े आचार्य माने गये हैं और जिनके प्रवचनसार, समयसार, आदि ग्रन्थ जैन-सिद्धान्त के सर्वोपरि प्रमाण माने जाते हैं।"
(षट्खण्डागम प्रथम खण्ड की भूमिका पृष्ठ ४६)
प्रो० सा० की ऊपर की पंक्तियों से अधिक अब हम आचार्य शिरोमणि कुंदकुंद स्वामी के अयाध पाण्डत्य के विषय में कुछ भी कहना व्यर्थ समझते हैं। "जिन्होंने षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका रची है। और जो दि० जैन-सिद्धान्त के सर्वोपरि प्रमाण माने जाते हैं और सबसे बड़े आचार्य गिने जाते हैं।"
जिन आचार्य कुंदकुंद स्वामी का परिचय प्रो० सा० ने अपनी भूमिका के उक्त शब्दों में दिया है, वे ही आज उन्हें कम-सिद्धान्त और गुणस्थान चर्चा के अजानकार बतावें ? ऐसा पूर्वापर विरोधी वचन कहने में उनका क्या अन्तरंग रहस्य है, सो वे ही जानें। अस्तु ।