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दि० जैनधर्म के अनुसार गमन करता है। यदि वह वस्तुस्वरूप से विरुद्ध-असम्भव को सम्भव बतलाने लगता है तो वहां वह विफल ही रहता है । दि० जैनधर्म ने जिस प्रकार पुद्गल को क्रियात्मक एवं अचिन्त्य शक्तिवाला माना है । साथ ही पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि उसकी अनेक रूप परिणमन करने वाली मिश्रित पर्यायें बताई हैं । शब्द को भी पौद्गलिक बताया है। उसी का फल आज वर्तमान विज्ञान द्वारा विद्यत शक्ति के विकाश रूप में वायुयान ( ऐरोप्लेन ), वायरलेस (बिना तार का तार ) आदि कार्य दिखाये जा रहे हैं । परन्तु मृत शरीर में पुनः जीव आ जाय या पैदा हो जाय यह असम्भव प्रयोग कोई विज्ञान न तो आज तक सिद्ध कर सका है और न कर सकेगा। यह निश्चित बात है। इसी प्रकार द्रव्य गुण पर्यायों की व्यवस्था, गुणस्थान और मार्गणाओं के आत्मीय भाव एवं अवस्थाओं के भेद, लोक - रचना रूप करणानुयोग, गृहस्थों व साधुओं का स्वरूप भेद, ये सब बातें वस्तु-स्थिति की परिचायक हैं। इनके सिवा अत्यन्त सूक्ष्म एवं कालभेद, देशभेदसे परोक्ष ऐसा अनन्त पदार्थ समूह है जिसका ज्ञान एवं विचार हमारी तुच्छ बुद्धि के सर्वथा अगम्य है । परन्तु जो स्थूल है वह हमारे स्वानुभवगम्य भी है। इसी से दि० जैनधर्म और जैन आगम की यथार्थता वस्तु-स्वरूप से सिद्ध होती है ।
जब कि वस्तु-स्वभाव का प्रतिपादक यह धर्म है तब