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[ १३ ] इमी लक्ष्य से उन्होंने अपने लेख का शीर्षक-"क्या दिगम्बर
और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके शासनोंमें कोई मौलिक भेद है ?" यह दिया है।
इस शीर्षक से उन्होंने स्त्री-मुक्ति आदि बातों की श्वेताम्बर मान्यता को दिगम्बर शास्त्रों से भी सिद्ध करने का प्रयास कर यह बात भी दिखला दी है कि जब दिगम्बर सम्प्रदाय में भी स्त्री-मुक्ति, सवस्त्र-मुक्ति और केवली-कवलाहार उस सम्प्रदाय के शास्त्रों द्वारा मान्य है। तब दोनों सम्प्रदायों में वास्तव में कोई भेद नहीं है।
हमारी समझ से तो उन्होंने फूक से पहाड़ उड़ाना चाहा है। नहीं तो ऐसा असम्भव प्रयास वे नहीं करते। दि० जैनधर्म आगम-प्रमाण के साथ हेतुवाद, युक्तिवाद एवं स्वानुभवगम्य भी है। उसके अकाट्य सिद्धान्त सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित हैं। यह बात कहने एवं समझने मात्र नहीं है, किन्तु वस्तु स्वरूप स्वयं उसी रूप में परिणत है। वह वस्तु-व्यवस्था ही इस बात का परिचय कराती है कि दि० जैन धर्म यथार्थ है, अत एव वह सर्वज्ञ-प्रतिपादित है। दि० जैन धर्म को शास्त्र रूप में प्रणयन करने वाले गणधरदेव चार ज्ञान के धारी थे। इस लिये उन्होंने सर्वज्ञ प्रतिपादित वस्तु स्वरूप का स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव भी किया है। उसी को प्राचार्य प्रत्याचार्य परम्परा ने कहा है। आजकल का विज्ञानवाद ( Science ) भी वहीं तक सफल होता है जहां तक कि