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[१५] वस्तुओं की अनादिता से यह धर्म भी अनादि है। अनिधन है। क्योंकि द्रव्य सभी द्रव्य-दृष्टि से नित्य हैं। युग २ में तीर्थकर होते हैं। वे अपने उपदेश से सन्मार्ग का प्रसार कर भव्यात्माओं को मोक्षमार्गपर लगाते हैं। मोक्षमार्ग, मोक्ष स्वरूप के समान सदैव एक रूप में नियत है, उसमें कभी कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हो सकता है। अणुव्रत, महाव्रत, दशधर्म, समिति, गुप्ति, उपशम श्रेणी, क्षपक श्रेणी, मूल गुण आदि का जो स्वरूप प्रात्मीय विशुद्धि एवं कर्मों की वादर कृष्टि एवं सूक्ष्मकृष्टि रचना द्वारा अनंत गुणी हीन शक्ति का होना आदि सब सिद्धांत एक रूप में ही रहते हैं। केवल मान्यता पर वस्तु-सिद्धि नहीं हो सकती है। किन्तु वस्तु की यथार्थ व्यवस्था से वह होती है। इस लिये दि० जैनधर्म की मौलिकता अनादि निधन है। टंकोत्कीर्णवत् अचल एवं सुमेरुवत् दृढ़ है। किन्तु पात्रता के अनुसार ही उसकी यथार्थ श्रद्धा पहचान और प्राप्ति हो सकती है। अन्यथा नहीं।
इस लिये स्त्री-मुक्ति, सवस्त्र-मुक्ति और केवलीकालाहार आदि बातों से किसी प्रकार भी दि० जैनधर्म में श्वेताम्बर मान्यता के समान कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हो सकता है। दिगम्बर धर्म में श्वेताम्बरों की मौलिकताओं का
समावेश असम्भव है। हां श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यताएँ और भी अनेक