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“कुन्दकुन्दाचार्य ने केवली के भूख प्यासादि की वेदना का निषेध किया है पर तत्वार्थ सूत्रकार ने सबलता से कर्मसिद्धान्तानुसार यह सिद्ध किया है कि वेदनीयोदय-जन्य क्षुधा पिपासादि ग्यारह परीषद केवली के भी होते हैं (देखो श्रध्याय ६ सूत्र. ८ - १७) सर्वार्थ सिद्धिकार एवं राजवार्तिककार ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि मोहनीय कर्मोदय के अभाव में वेदनीय का प्रभाव जर्जरित हो जाता है इससे वेदनाऐं केवली के नहीं होतीं । पर कर्म सिद्धान्त से यह बात सिद्ध नहीं होती ।"
पाठक महोदय प्रो० मा० की इन पंक्तियों को ध्यान से पढ़ लेवें। वे तत्वार्थ सूत्र से तो केवली भगवान के क्षुधा पिपासादि की वेदना सिद्ध करना चाहते हैं परन्तु साथ ही सर्वार्थ सिद्धि राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में जो आचार्य पूज्यपाद और आचार्य अकलंक देव, आचार्य विद्यानंद आदि ने उस तत्वार्थ सूत्र का खुलासा अर्थ किया है उस पर वे उन आचार्यों के लिये लिखते हैं कि 'उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि केवली के क्षुधा पिपासादि की वेदना नहीं होती है परन्तु कर्म सिद्धांत से यह बात सिद्ध नहीं होती है ।'
हमें इन पंक्तियों को पढ़ कर प्रो० सा० के अनुभव और उनके ऐसे लिखने पर बहुत खेद होता है । पहले वे स्त्री मुक्ति और सत्र मुक्ति के प्रकरण में भगवान कुन्दकुन्द स्वामी के लिये लिख चुके हैं कि उन्होंने जो स्त्री मुक्ति और