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श्रात्मीय भावों के रागांश का परिणाम है। कर्मसिद्धान्त के अनुसार और तदनुकूल गुणस्थान रूप रचना के अनुसार छठे गुणस्थान में संज्वलन कषाय का तीब्रोदय रहता है। उसके कारण मुनिराजों के रागभाव का होना सहज है। इसी लिये छठे गुणस्थान को 'प्रमत्त' कहा गया है। वहां पर कषायोदय से प्रमाद रहता है। अत एव वकुश जाति के मुनि शरीर को स्वच्छ रखना चाहते हैं, यदि शरीर में धूल मिट्टी लग जाय तो वे उसे दूर कर देते हैं। उनकी ऐसी भी इच्छा रहती है कि कमण्डलु और पीली भी उनकी नई हो, इस प्रकार का अनुराग उनके अभी कर्मोदय-वश बना हुआ है। परन्तु इस अनुराग के कारण वे वरू भी धारण कर लेते हैं।' यह बात प्रो० सा० ने नहीं मालूम कैसे कह खाली ? वकुश मुनियों का लक्षण सर्वार्थ-सिद्धि, राजबार्तिक, श्लोकवार्तिक तीनों ग्रन्थों में लिखा हुआ है, कम से कम उन्हें एक बार इन ग्रन्थों में उन वकुश मुनियों के लक्षण को तो पहले देख लेना आवश्कक था, तभी उन मुनियों के वे वस्खविधानको बात लिखते।
पाठकों को जानकारी के लिये यहां पर हम उन वकुश मुनियों का लक्षण प्रगट कर देते हैं
नम्रन्ध्यं प्रतिस्थिताः अखण्डितम्रताः शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिनोऽविविक्तपरिच्छेदाः मोहशवलयुक्ताः वकुशाः ।
(सर्वार्थसिद्धि सूत्र ४६ पृष्ठ ३११)