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। १०० ] अर्थात्-जो पूर्ण निथ ( नम ) हों, जिनके ब्रत रूण्डित नहीं हों, अर्थान् जिनके श्रवाईस मूल गुणों में से किसी ब्रत की विराधना नहीं हो, न्तुि शरीर और उपकरणों के सुन्दर रखने के अभिलाषी हों तथा परिवार से भी जिनका मम व पूर्ण रूप म दूर नहीं हुआ हो, इस प्रकार की लहरों से जो युक्त हों वे वकुश मुनि कहलाते हैं। यहां पर सबसे पहले "नैर्ग्रन्थ्यं प्रतिस्थिताः" यह पद दिया गया है, इसका अर्थ यही है कि वे वकुश मुनि नग्न ही रहते हैं। जब उनके लक्षण में नम्रता का ही विधान है तब शरीर-संस्कार के अनुवर्ती कहन से उन्हें प्रो० सा० का स्त्र सहित' समकना सूत्राशय से सर्वथा विपरीत है।
जो लक्षण ऊपर सवार्थसिद्धि में वकुश मुनियों का कहा गया है वही लक्षण राजवार्तिक में कहा गया है। इस लिये उसे भी यहां लिखा जाय तो लेख बढ़ेगा। अतः पाठक वहां स्वयं देख सकते हैं।
आगे प्रो० सा० लिखते हैं
"भावलिग प्रतीत्य पंच प्रिन्थ-लि.गिनो भवन्ति द्रव्यलिगं प्रतीत्य भाज्याः।
(तत्वार्थसूत्र अ० ६ सूत्र ४७ सर्वार्थसिद्धि) इसका टीकाकारों ने यही अर्थ किया है कि कभी २ मुनि वस्त्र भी धारण कर सकते हैं,,।
ऊपर सर्वार्थ सिद्धि के दो वाक्य रखकर प्रो० सा० का