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________________ [६६ है। बाह्य परिग्रह के रहते हुए अन्तरंग परियह कभी नष्ट नहीं हो सकता है। अर्थात पहले बाह्य परिग्रह दूरकर निम्रन्थअवस्था धारण की जायगी तभी अन्तरंग परिग्रह कषायभाव नष्ट हो सकते हैं। जो लोग यह कहते हैं कि वस्त्रादिके धारण करने पर भी मूर्छा के नहीं उत्पन्न होने से निम्रन्थभाव ही माना जाना चाहिये। अर्थात कोई लोग यदि यह कहें कि मुनि वस्त्र भी धारणकर लें तो भी उनके ममत्वभाव नहीं होता है इस लिये उन वस्त्रधारी मुनि को भी निम्रन्थ ही कहना चाहिये ? ऐसी कोई शंका करे तो उसके उत्तर में प्राचार्य कहते हैं कि यदि वस्त्र धारण करने पर भी ममत्वभाव (मूर्खा) नहीं माना जाता तो फिर स्त्री आदि के ग्रहण करने पर भी ममत्वभाव मत मानो। अर्थात् यदि स्त्री आदि के ग्रहण में प्रमाद एवं मूर्खा है तो इच्छा पूर्वक वस्त्र पहनने पर भी प्रमाद और मूर्छा क्यों नहीं मानी जायगी? क्योंकि स्त्री और वस्त्र दोनों ही परिग्रह हैं। और यह नियम है कि वस्त्र आदि किसी भी परिग्रह का ग्रहण विना मू भाव ( ममत्वभाव ) के कभी नहीं हो सकता है। जिसके ममत्व लगा हुआ है, शरीर से और वसों से ममत्व है वही वस्त्र धारण करेगा और जिसने शरीर और उसकी रक्षा के साधन वस्त्रों से थोड़ा भी ममत्वभाव नहीं रखा है वह उन वस्त्रों को क्यों ग्रहण करेगा ? अर्थात् निर्मोही मुनि वस्रों को सईया छोड़ देते हैं। कारण का नाश होने पर कार्यका भी नाश हो जाता
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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