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[१३] मर्वार्थसिद्धि की इस ४६८ सूत्र की टीका की ऊपर की पंक्तियों से यह बात खुलासा हो जाती है कि सभी मुनि नाम ही होते हैं। गुणों में मुनियों में भेद है परन्तु नग्न सभी हैं। 'कोई सवस्त्र हो, कोई वस्त्र रहित हो ऐसी बात किसी भी ग्रन्थ में नहीं है।
प्रो० सा० का यह लिखना कि 'वस-त्याग अनिवार्य नहीं पाया जाता'-मिथ्या है। सर्वार्थसिद्धि की इन पंक्तियों से वस्त्र-त्याग मुनिमात्र के लिये अनिवार्य एवं परमावश्यक है। बिना वस्त्र-त्याग किये पुलाक आदि पांचों मुनियों के भेदों में किसी का ग्रहण नहीं हो सकता है और पांच भेदों के सिवा और छठा कोई मुनियों में भेद है नहीं। इन्हीं में सब मुनियों का ग्रहण हो जाता है।
अब राजवार्तिक को देखिये
प्रकृष्टाप्रकृष्टमध्यानां निम्रन्थाभावश्चारित्रभेदात् गृहस्थवत् ६-यथा गृहस्थश्चारित्रभेदान्निम्रन्थव्यपदेशभाग न भवति तथा पुलकादीनामपि प्रकृष्टमध्यमचारित्रभेदान्निग्रन्थत्वं नोपपद्यते ? । न वा दृष्टत्वात् ब्राह्मणशब्दवत -न वैष दोषः कुतो ब्राह्मण-शब्दवत् यथा जात्या चारित्रध्ययनादिभेदन भिन्नेषु ब्राह्मणशब्दो वर्तते तथा निर्ग्रन्थशब्दोपि, किंच। दृष्टिरूपसामान्यात -सम्यग्दर्शनं निर्मन्य-रूपश्च भूषावेशायुधविरहितं तत्सामान्ययोगात सर्वेषु हि पुलाकादिषु निग्रन्थशब्दो युक्तः ।"
(तत्त्रार्थ राजवार्तिक सूत्र ४६ पृष्ठ ३५८)