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[८४] तथा जिसके बंधु-बांधव व कुटुम्बीजन मिध्यादृष्टि हैं ऐसे गृहस्थ के अपवाद लिंग ही होता है। अर्थात् वैसा गृहस्थ सवस्त्र ही रहता है। उसके लिये उत्सर्गलिंग के धारण करने को शास्त्राज्ञा नहीं है।
इसका खुलासा अर्थ यह है कि लिंग दो प्रकार के होते हैं एक उत्सर्ग, दूसरा अपवाद लिंग। जिस लिग में सर्वथा वस्त्रों का त्याग है, नमावस्था है वह उत्सर्गलिंग कहा जाता है। तथा जो उसके विरुद्ध सवरूलिंग है उसे अपवादलिंग कहते हैं। मुनिगण तो सदा उत्सर्ग में ही रहते हैं, वे यदि अपवादलिंग धारण कर लेवे तो मुनिपद का ही अपवाद हो जाता है। अर्थात् सवस्त्रावस्था में मुनिपद ही नहीं ठहरता है। परन्तु गृहस्थ, विशेष अवस्था में उत्सर्गलिंग भी धारण कर सकता है और ऊपर कही हुई अवस्था में वह सवल हो र सकता है।
यहां पर भक्त प्रत्याख्यान समाधिमरण का प्रकरण है। मुनिगण तो सदैव उत्सर्गलिंग ( वस्त्र-रहित नमरूप ) में रहते ही हैं, इस लिये वे तो उत्सर्गलिंग वाले ही हैं। परन्तु जो गृहस्थ भक्त-प्रत्याख्यान-समाधिमरण धारण करता है तो उसके लिये यहां पर विचार है। उसी को ७६ वी गाथा में भगवती आराधनाकार कहते हैं कि जो गृहस्थ अनेक मनुष्यों से भरे हुए अपने घर में ही रहता है और स्वयं वैभवशाली श्रीमान, लज्जावान भी है और जिसके बन्धु-बांधव मिथ्या