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[५] हैं तो ऐसा गृहस्थ उत्सर्गलिंग, अर्थात् वस्त्र-रहित अवस्था, नम्रता को धारण कहीं कर सकता। उसके लिये सवल रहनेकी ही शास्त्राला है।
यहां पर इस गाथा में गृहस्थ का ही विधान है यह आत गाथा के पदों से ही खुलासा हो जाती है। वैभवशाली मुनि नहीं होते, अनेक मनुष्यों से भरे हुए अपने निवासस्थान पर मुनि नहीं रहते हैं। सदा नम रहने वाले मुनि लज्जावान भी नहीं होते हैं। तथा जब मुनि सब कुटुम्ब को छोड़कर जंगल में रहते हैं तब उनके कुटुम्बी मिथ्यादृष्टि हों
और उनके बीच में वह समाधिमरण धारण करें यह बात भी सर्वथा विपरीत है। इस लिये यह सब कथन भक्त-प्रत्याख्यान धारण करने वाले गृहस्थ के लिये है।
दूसरी बात यह भी समझ लेनी चाहिये कि जब यहां पर भक्त-प्रत्याख्यान समाधिमरण का प्रकरण है तब समाधिमरण के समय जब गृहस्थ को भी वस्त्रादि का त्याग कराया जाता है, कुटुम्बादि से ममत्व छुड़ाया जाता है, जो एकांत स्थान में रहने वाला हो, धन कुटुम्ब से ममत्व नहीं रखता हो, लज्जावान नहीं हो, वैसे गृहस्थ के लिये भी भक्त-प्रत्याख्यान समाधिमरण के समय वस्त्र-त्याग का, नम रहने का, अर्थात उस अवस्था विशेष में उत्सर्गलिंग ( मुनिवत् ) धारण करने की शास्त्राज्ञा है और वैसा ही उपदेश उसे निकटस्थ धार्मिक विद्वान देते हैं। जब गृहस्थ से भी वस्त्रों का त्याग कराया