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________________ कोई भक्त अपने इष्ट-देव की मूर्ति को ही अणु-अणु में प्रत्यक्षवत् देखता है, उसकी मूर्ति-समाधि समझिए। इस प्रकार जिस भावना में चित्त की स्थिरता हुई हो उस भावना को उसको समाधि कहना चाहिए । प्रत्येक मनुष्य को इस तरह कोई-न-कोई समाधि है। लेकिन जो भावनाएँ मनुष्य की उन्नति करनेवाली हैं, उसका चिच शुद्ध करनेवाली है, उन भावनाबों की समाधि अभ्यास करने वोग्य कही जाती है। ऐसी सात्विक समाधियाँ ज्ञान-शक्ति, उत्साह, आरोग्य, मादि सब को बढ़ानेवाली हैं। वे दूसरों को भी आशीर्वाद रूप होती हैं। उनमें स्थिरता होने पर फिर चंचलता नहीं आती; इसके बाद नीचे की हलकी भावना में प्रवेश नहीं होता । ऐसी भावनाएं मैत्री, करुणा, प्रमोद, उपेक्षा बादि वृत्तियों की हैं। एक बार स्थिरता से प्राणिमात्र के प्रति मैत्री-भावना होने पर उससे उतरकर हिंसा था द्वेष नहीं ही होता। ऐसी भावनाओं और शीलों के अभ्यास से मनुष्य शांति और सत्य के द्वार तक पहुँचता है। मानवों के इस प्रकार के उत्कर्ष बिना हठयोग की समाधि विशेष फल प्रदान नहीं करती। इस प्रकार समाधि-लाम के बारे में बौद्ध-ग्रंथों में बहुत सुन्दर सूचनाएँ हैं। १. समाज-स्थिति सच देखा जाय तो प्रत्येक काल में तीन प्रकार के लोग होते हैं: एक प्रत्यक्ष नाशवंत जगत को भोगने की तृष्णावाले; दूसरे
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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