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टिप्पाणया
मरने के बाद ऐसे ही काल्पनिक होने से विशेष रम्य छगनेवाले जगत को भोगने की तृष्णावाले ( ऐसे लोग इन काल्पनिक भोगों के लिए काल्पनिक देवों की अथवा भूतकाल में हुए पुरुषों को कल्पना से अपने से विजातीय स्वरूप दे उनकी उपासना करते हैं।); तीसरे मोक्ष की वासनावाले अर्थात् प्रत्यक्ष सुख, दुख, हर्ष, शोक से मुक्ति की इच्छावाने नहीं, किंतु जन्म और मरण के चक्कर से निवृत्त होने की इच्छावाले।
इससे चौथे, संत पुरुष, प्रत्यक्ष जगत में से भोग भावना का नाश कर, मृत्यु के बाद भोग भोगने की इच्छा का भी नाश करते हैं तथा जन्म-मरण की परंपरा के भय से उत्पन्न हुई मोक्ष पासना को भी छोड़ जिस स्थिति में, जिस समय वे हों उसी स्थिति को. शांतिपूर्वक धारण करनेवाले होते हैं। वे भी प्रत्यक्ष को ही पूजनेवाले हैं, किन्तु इनमें उनकी भोगवृत्ति नहीं है, केवळ मैत्री, कारुण्य या प्रमोद की वृत्ति से ये प्रत्यक्ष गुरु और भूत प्राणी को पूजते हैं।
इस प्रत्येक उपासना से मनुष्य को पार होना पड़ता है। कितने समय तक वह एक ही भूमिका पर टिका रहेगा, यह उसकी विवेक दशा पर अवलंबित रहता है।
५. शरणत्रय:
भिन्न-भिन्न नाम से इस शरण-त्रय की प्रत्येक सम्प्रदाय ने महिमा स्वीकार की है। इनका शरण यह है कि ये शरण-प्रय स्वाभा