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________________ - उपदेश सत्कार्यों को चालू रखना, उनकी संपत्ति का योग्य विभाजन करना चौर मरे हुए हिस्सेदारों के हिस्से का दान-धर्म करना। गुरु को दक्षिण दिशा समझ उनके आने पर खड़े होना, बीमारी में शुश्रूषा करना, पढ़ाते समय श्रद्धापूर्वक समझना, प्रसंग खाने पर उनका काम करना और उनकी दी हुई विद्या की प्रतिष्ठा रखना, यह दक्षिण दिशा की पूजा करना है। पश्चिम दिशाबो को समझना चाहिये । उसका मान रखने से, अपमान न होने देने से, पत्नीव्रत के पालन से, घर का कारोबार उसे सौंपने से और आवश्यक वस्त्रादि की पूर्ति करने से उसकी पूजा होती है। - उत्तर दिशा यानी मित्रवर्ग और सगे-संबंधी। उन्हें योग्य वस्तुएँ भेंट करने से, मधुर व्यवहार रखने से, उनके उपयोग में आने से, उनके साथ समानता का बर्ताव करने से, और निष्कपट व्यवहार से उत्तर दिशा ठीक तरह पूजी जाती है। __अधोदिशा का वन्दन सेवक को शक्ति-प्रमाण ही काम सौंपने से, योग्य और समय पर वेतन देने से, बीमारी में शुश्रूषा करने से ओर अच्छा भोजन तथा प्रसंगोपाच इनाम देने से होता है। ऊर्वदिशा की पूजा साधु-संतों का मन, वचन और काया से आदर करने से, भिक्षा में बाधा न गलने से और योग्य वस्तु के दान से होती है।
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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