SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तपश्चर्या अप्रशको नहीं ध्यान, न प्रज्ञा ध्यान-हीन को । जो है प्रज्ञा व ध्यान-युक्त, निर्वाण उसके पासमें ॥' १. मिक्षा वृत्तिः यह त्याग कर सिद्धार्थ दूर निकल गया । चमारसे लेकर ब्राह्मण तक सब जातिके लोगोंसे प्राप्त मिक्षाको एक पात्रमें जमा कर बह खाने लगा। पहले पहल ऐसा करना उसे बढ़ा ही कठिन लगा, लेकिन उसने विचार किया, “अरे जीव, तुझे किसीने संन्यास लेने के लिए जबरदस्ती नहीं की थी । गजी खुशीसे ही तूने यह वेश लिया है; अब तुझे यह भिक्षाम खाने में क्यों ग्लानि होती है। मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद-भावको देख तेरा हृदय भर भाता था । परंतु अब स्वयं पर हीन जातिके व्यक्तिका अन्न खानेका प्रसंग आने पर तेरे मनमें इन लोगोंके विषयमें अनुकमा न आकर ग्लानि क्यों होती है । सिद्धार्थ, छोड़दे इस दुर्बलता को ! सुगंधित भातम और हीन लोगों द्वारा लिए हुए इस अन्नमें तुझे भेद-भाव नहीं करना चाहिए । इस स्थितिको प्राप्त करनेपर ही तेरी प्रव्रज्या सफल होगी। इस प्रकार अपने मनको बोष दे विषम-दृष्टिके संस्कारों का सिद्धार्थने दृढ़ता पूर्वक त्याग किया। २. गुरुकी शोध : कालाम मुनिके यहाँ: ___ अब वह आत्यंतिक मुख का मार्ग बतानेवाले गुरुकी शोधर्मे लगा। पहले वह काला म नामक योगीका शिष्य होगया । उसने पहले सिद्धार्यको १. नस्थि ज्ञान अपनस्स पचा नपि अज्झायतो।। ___ अमि ज्ञानं च पभा च सवे निन्वान सन्तिके ।।-(धम्मपद) २. देखो पीछेकी टिप्पणी
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy