________________
महाभिनिष्क्रमण
होने लगे । लेकिन ये विश्वार कब कहे जा सकते हैं ? इस सुखके स्थान पर दूसरा कोई अविनाशी सुख बता सकने पर ही यह बात करना उचित है। ऐसे सुखकी शोध करने से छुटकारा हो सकता है। निजी हित के लिए यही मुख प्राप्त करना चाहिए और प्रियजनोंका सच्चा हित् करना हो तो भी अविनाशी सुख की ही खोज करनी चाहिए ।
७. महाभिनिष्क्रमण :
आगे चलकर वह कहता है कि " ऐसे विचारोंमें कितना ही समय जाने के बाद, जब कि मैं उनतीस वर्षका तरुण था, मेरा एक भी बाल सफेद नहीं हुआ था और माता पिता मुझे इजाजत नहीं दे रहे थे; आंखोंसे निकलते अश्रुप्रवाहसे उनके गाल गीले हो गए थे और वे एक सरीखे रोते थे, तब भी मैं शिरो मुंडनकर, भगवा वेश धारण कर घरसे निकल ही गया ।
८. सिद्धार्थ की करुणा :
यों सगे-संबंधी माता-पिता, पत्नी-पुत्र आदिको छोड़नेमें सिद्धार्थ कोई निष्ठुर नहीं था । उसका हृदय तो पारिजातकसे भी कोमल हो गया था । प्राणी - मात्र की ओर प्रेम-भावसे निहारता था । उसे ऐसा लगा कि यदि जीना हो तो जगतके कल्याण के लिए ही जीना चाहिए। केवल स्वयं मोक्ष प्राप्त करने की इच्छासे ही वह गृह-त्याग के लिए प्रेरित नहीं हुआ था । लेकिन जगतमें दुःख निवारण का कोई उपाय है या नहीं, इसकी शोध आवश्यक थी । और, इसके लिए जिन्हें मिथ्या बताया गया है, ऐसे सुखों का त्याग न करना तो मोह ही माना जावेगा । ऐसा विचार कर सिद्धार्थने संन्यास - धर्म स्वीकार कर लिया ।
१. बुद्ध, धर्म और संघसे