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________________ 'समालोचना देना यह शांति का निश्चित मार्ग है । इसी मार्ग को विशेष विस्तार पूर्वक समझा कर बुद्ध ने आर्य-अष्टांगिक मार्ग का उपदेश किया। ३, इच्छावाल ही दुखी हैं: .... जो सुख की इच्छा करते हैं वे ही दुःखी हैं। जो स्वर्ग की वासना रखते हैं, वे ही निष्कारण नरक-यातना भोगते हैं। जो मोक्ष की वासना रखते हैं, वे ही अपने आपको बद्ध पाते हैं। जो दुःख का स्वागत करने को हमेशा तैयार हैं, वे सदा ही शांत हैं। जो सतत सद्विचार और सत्कार्य में तल्लीन हैं, ऐसे के लिए यह जन्म भाया या दुसरं हजारों जन्म आवे तो भी क्या चिता ? न वह पुनर्जन्म की इच्छा रखता है और न उससे डरता ही है : जो सुखी प्राणियों के प्रति सदा मैत्री-भाव और दुखियों के प्रति करुणा रखता है. पुण्यात्मा को देख आनंदित होता है, और पापियो को सुधार भी न सके तो उनके लिए कम-से-कम दया-भाव या अहिंसा वृत्ति रखता है, उसके लिए संसार में भयानक क्या है ? उसका जीवन संसार के लिए भार-रूप कैसे सम्भव हो सकता है ? इतने पर भी किमी के मन में उसके प्रति मत्सर भावना पैदा हो तो वह उसे व्याधि, मरण, इष्ट-चियोग तथा अनिष्ट-संयोग के अतिरिक्त दूसरा कौन-सा दुःख दे सकता है ? विचारों की इसी कोई भूमिका पर दृढ़ होकर बुद्ध तथा महावीर ने शांति प्राप्त की। ४. सत्यकी जिज्ञासा: ___ इन दोनों प्रयत्नों में सत्यान्वेषण की आवश्यकता होती ही है। जगत का सत्य-तत्त्व क्या है ? 'मैं-मैं' द्वारा इस देह के भीतर
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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