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________________ १०४ बुद्ध और महावीर सकता है। जगत की सेवा करनी हो तो इसी विषय में करनी चाहिए। इन विचारों से प्रेरणा लेकर इन दुःखों को दवाई या इलाज खोजने के लिए वे निकल पड़े कि इन दुःखों से मुक्त होऊ और संसार को छुड़ाकर सुखी करूँ। दीर्घ काळ तक प्रयत्न करने पर उन्होंने देखा कि पहले पांच दु:ख अनिवार्य हैं। उन्हें सहन करने के लिए मन को बलवान किए बिना दूसरा कोई मार्ग नहीं हो सकता; लेकिन दूसरे दुःखों का, उनका तृष्णा से पैदा होने के कारण नाश करना संभव है । यदि दूसरा जन्म लेना पड़ा तो तृष्णा के कारण हो लेना पड़ेगा । मन के चिंतन को सदा के लिए रोका नहीं जा सकता । सविषय में न लगने पर वह वासनाओं को एकत्र किया करेगा । इसलिए उसे सविषय में लगाए रखने का प्रयत्न करना चाहिए, यही पुरुषार्थ है। इससे सात्विक वृत्ति का सुख और शांति प्रत्यक्ष रूप से मिलेगी; दूसरे प्राणियों को सुख मिलेगा; मन तृष्णा में नहीं दौड़ेगा और उससे संसार की सेवा होगी। तृष्णा ही पुनर्जन्म का कारण है, यदि यह बात सत्य है तो मन के वासनारहित हो जाने पर पुनर्जन्म का डर मानने की जरूरत नहीं रहती । 'धुवं जन्म मृतस्य च' यह बात ठीक हो तो भी सद्विषयों में लगे हुए मन को चिंता करने को जरूरत नहीं है। इस जन्म में जो पाँच अनिवार्य दुःख हैं उनके अतिरिक्त छठवाँ कोई दुःख दूसरे जन्म में आनेवाला नहीं है । इन दुःखों को सहन करने की आज यदि तैयारी हो तो फिर दूसरे जन्म में भी सहन करने पड़ेंगे, इस चिंता से घबराने की जरूरत नही । इसलिए जन्म-मरण आदि दुःखों का भय छोड़कर मन को शुभ प्रवृत्ति और शुभ विचार आदि में लगा
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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