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________________ २०६ जो मान हुआ करता है, वह 'मैं' कौन हूँ ? क्या हूँ ? कैसा हूँ ? यह जगत क्या है ? मेरा और जगत का पारस्परिक सम्बन्ध क्या है ? ऊपर लिखी दो प्रकृतियों के अलावा एक तीसरी प्रकृति के कितने ही आयों ने सत्य-तत्व की खोज का प्रयत्न किया; लेकिन जिस प्रकार बीज को जानने से वृक्ष का पूरा ज्ञान नहीं होता अथवा वृक्ष को जानने से बीज का अनुमान नहीं होता; उसी प्रकार केवल अंतिम सत्य-तत्र को जानने से सच्ची शांति प्राप्त नहीं होती और ऊपर उल्लिखित ( बुद्ध महावीर की ) भूमिका पर बारूढ़ होने के बाद भी सत्य तत्व की जिज्ञासा रह जाय तो उससे भी अशांति रह जाती है। सत्य को जानने के बाद भी अंत में ऊपरवाली भूमिका पर दृढ़ होना पड़ता है अथवा उस भूमिका पर दृढ़ होने के बाद भी सत्य की शोध बाकी रह जाती है। लेकिन जैसे वृक्ष को जाननेवाले मनुष्य को बीज की शोध के लिए केवल फल की ऋतु आने तक के समय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, वैसे बुद्ध - महावीर की भूमिका पर पहुँचे हुए के लिए सत्य दूर नहीं है । बुद्ध और महावीर ५. निश्चित भूमिका : जम्म-मृत्यु के फेरे से मुक्ति चाहने वाले को, हर्ष-शोक से मुक्ति चाहनेवाले को, आत्मा की शोध करनेवाले को-सबकोअन्त में, व्यावहारिक जीवन में ऊपर की भूमिका पर आना ही पड़ता है । चित्त की शुद्धि, निरहंकार, समस्त वादों- कल्पनाओं में अनामह, शारीरिक-मानसिक या किसी भी प्रकार के सुख में,
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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