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उपदेश
विषय सुख के त्याग से जिन्होंने भय तथा राग-द्वेष का त्याग कर दिया हो, ऐसे त्यागी पुरुष निर्बंध ( संयमी और संतोषी ) कहलाते हैं। (७) चार प्रकारका सत्य यानी तन, मन और वचन की एकता रखना और पूर्वापर अविरुद्ध वचन का उच्चारण करना है। (८) उपवास, ऊनोदर ( आहार में दो-चार कौर कम लेना ) आजीविका का नियम, रस-त्याग, शीतोष्णादि को समवृत्ति से सहना और स्थिरासन रहना -- छ: बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, ध्यान, सेवा, चिनय, कायोत्सर्ग और स्वाध्याय - ये छः आभ्यंतर तप हैं । (६) मन, वचन, काया से सम्पूर्ण संयमपूर्वक रहना ब्रह्मचर्य है । (१०) निस्पृहता ही अपरिग्रह है। इन दश धर्मो के सेवन से अपने-आप भय, राग और द्वेष नष्ट होते हैं और ज्ञान की प्राप्ति होती है।
३. स्वाभाविक उन्नति पंथ :
शांत, दांत, व्रत, नियम में सावधान और विश्ववत्सक मोक्षार्थी मनुष्य निष्कपटता से जो-जो किया करता है, उससे गुणों की वृद्धि होती है। जिस पुरुष की श्रद्धा पवित्र है, उसको शुभ और अशुभ दोनों वस्तुएँ शुभ विचार के कारण शुभ रूप ही फल देती हैं।
४. अहिंसा परमोधर्मः
हे मुनि' जन्म और जरा के दुख देखो। जिस प्रकार तुम्हें
१- मुनि अर्थात् विचारवान् पुरुष ।