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मार्जार नामक वायु को शान्त करने वाला, अन्य आचार्यो का कहना है कि विरालिका नामक वनस्पति से भावना किया हुआ बीजोरापाक है, उसे ले आओ, उस से मुझे प्रयोजन है ।
श्री अभयदेवसूरि ने इस उपर्युक्त टीका (वृति) में लिखा है कि सुनते हैं कि कोई-कोई 'दुवे कवोयसरीरा और मज्जारकडए कुक्कुड मंसए, का अर्थ प्राणीपरक करते है । इस से यह बात तो स्पष्ट है कि अन्य जैनाचार्य और उस समय के आम विद्वान् इन शब्दो का अर्थ वनस्पतिपरक करते थे और यही अर्थ आचार्य श्रीअभयदेवसूरि को भी मान्य था । हमारी इस धारणा की पुष्टि ( १ ) ठाणाग सूत्र की गृहपति की भार्या रेवती के परिचय मे मूत्र पाठ की टीका है । ( २ ) इस पाठ से भी स्पष्ट है कि कोई-कोई ऐसा अर्थ भी करते हैं। यदि उन का अपना भी यही मत होता तो वे 'सुना है' ऐसा न लिख कर इन शब्दों का प्राणीपरक अर्थ करके वनस्पतिपरक अर्थ के साथ 'श्रयमाणमेवार्थ' लिखते । इस मे भी यही सिद्ध होता है कि आचार्य अभयदेव को भी वनस्पतिपरक अर्थ ही मान्य है । (३) इस पार के विषय मे इन शब्दो का मांसपरक अर्थ किसी भी अन्य उपलब्ध टीकाओं मे नहीं मिलता । ( ४ ) इन शब्दो के अर्थ वनस्पतिपरक ही होना चाहिये और यही अर्थ ठीक है इस विषय की पुष्टि के लिये हम अन्य जैनाचार्यों के मत भी दे देना उचित समझते हैं ।
( ग )
विक्रम संवत् ११४१ पाटण में कर्णदेव के राज्य समय मे जैनाचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने प्राकृत भाषा ने तीन हजार श्लोकप्रमाण 'महावीर चरित्र' रचना की है, जो ग्रंथ आत्मानन्द ग्रथ रत्न माला ग्रंथ नं० ५८ भावनगर की जैन आत्मानन्द सभा की तरफ से वि० सं० १९७३ में प्रकाशित हुआ है । उसके पत्र ८४ में यह अधिकार गाथा नं० १९३० से ३५ तक इस प्रकार वर्णन है ।
"ता गच्छ तुमं मिढियगामं मग्गाहि रेवई मज्क्षं । गाहावईण कज्जे पज्जुसियं ओसहं कप्पं ॥ १९३०॥