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है तथा यहां भी वैसा ही अर्थ किया है । इसलिए वनस्पतिपरक वर्ष ही वास्तविक है ।
श्री भगवती सूत्र के विवादास्पद सूत्रपाठ की टीका
''दुवे कवोया" इत्यादेः -- श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते । अन्ये स्वाहः कपोतकः -- पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसात् कपोते कूष्मांडे, ह्रस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे अथवा कपोलकशरीरे इव धूसरवर्णसाधम्र्म्यादिव कपोतकशरीरे कूष्माण्डफले एव ते उपस्कृते- संस्कृते 'तेहिनो अट्ठो' ति बहुपापत्वात् । 'पारिआसिए' त्ति परिवासितं ह्यस्तनमित्यर्थः इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थं मन्यन्ते । अन्यत्वाहु-- 'मज्जारकडए' मार्जारो वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृतं संस्कृतं मार्जारकृतं अपरे त्वाहु-मार्जारोविरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं -- भावितं यत्तथा, कि तत् ? इत्याह-- 'कुर्कुटकमांसकं' बीजपूरकं कटाहम् 'आहराहि' ति निरवद्यत्वादिति ।
अर्थात्- [- इस लिये हे सिंह । तुम मेढिक ग्राम नाम के नगर मे गृहपति की भार्या रेवती के घर जाओ । वहा उस ने मेरे लिये (कोई-कोई दुबे nate सरीरा का प्राणीपरक अर्थ भी मानते है परन्तु अन्य कहते हैं कि ) दो कु हमाण्ड फल (पेठे के फल) तैयार किये है, उन से मुझे प्रयोजन नहीं, क्यों कि इसे लाना बहुत दोष का कारण है (निर्ग्रथ श्रमण के निमित्त जो आहार तैयार किया जाता है ऐसा आहार जैन साधु को लेना नही कलपता इस लिये ऐसा आधाकर्मी पेठे का पाक जो श्रमण भगवान् महावीर के निमित्त बनाया गया था, उसे लाने के लिये मना कर दिया); परन्तु इस के इलावा दूसरा जो पाक उन्होंने अपने लिये पहले का बना कर रखा हुआ है, 'वह मज्जरकडए' (इस के लिये भी ऐसा सुना है कि कोई-कोई इस का प्राणीपरक अर्थ मानते हैं परन्तु अन्य सब ऐसा मानते हैं) यानी