________________
( ७२ )
मूलशरीरे उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनं तथाऽन्यदस्ति तद्गृहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य वायोनिवृत्तिकारकं कुक्कुडमांसकं पूरककटाहमित्यर्थः, तबाहर तेन नः प्रयोजनमिति । "
( ठाणांग सू० १९१ ) अर्थात् - " तुम नगर मे जाओ, रेवती नाम की गृहपति की भार्या ने मेरे लिए दो कूष्माण्ड फल ( पेठे ) संस्कार करके तैयार किये हैं, उनका प्रयोजन नहीं, परन्तु उसके घर मे मार्जार नामक वायु की निवृत्ति करने वाला बीजोरे फल का गूदा है, वह ले आओ। उसका मुझे प्रयोजन है। (उाणाग सूत्र स्० १११ )
इस उपर्युक्त अर्थ से यह बात स्पष्ट है कि ठाणाग जी सूत्र में इन शब्दों का अर्थ श्रीअभयदेवमृति ने स्पष्ट रूप से वनस्पतिपरक किया है इलिये यही अर्थ यथार्थ रूप मे उन्ह मान्य था ।
(ख)
इन्हीं टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि ने ठाणागजी की टीका लिखने के बाद पंचमाग "भगवती जी " सूत्र की टीका वि० सं० १९२८ मे लिखी । इसमे गोशालक के प्रसगवाले पन्द्रहवें शतक मे भी जो उन्हें स्वय मान्य अर्थ था वही किया । किन्तु एक निष्पक्ष टीकाकार होने के नाते उनके समय मे काई-कोई व्यक्ति इन शब्दों मे मे स्थूल दृष्टि से फलित होने वाले प्राणीवाचक अर्थ भी मानते होगे यह बतलाने के लिए उन्होंने यह बात भी अपनी टीका मे लिखी । ऐसा लिखते हुए भी यह बात उन्हें स्वयं मान्य नही थी । यदि यह बात उन्हे मान्य होती तो वे "श्रूषमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते " -- ऐसा न लिखते किन्तु इस अर्थ की चर्चा करके स्पष्ट करने की चेष्टा करते । न तो उन्होंने ऐसी कोई चर्चा ही की है और न ही ऐसा अर्थ किया है। इससे यह स्पष्ट है कि उन्हें स्वयं इन शब्दों का अर्थ प्राणीवाचक मान्य नहीं था यह निश्चित है। उन्हे स्वय जो अर्थ मान्य था उसी का उल्लेख उन्होंने ठाणॉन जी में किया