SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीहो य मओ तीए गेहं अम्भुढिओ य हिदकाए । सत्त पए अहिगम्म, वंदिमो परममत्तीए ॥१९३१॥ भणिओ साहेहि तुमं देवाणुपिया इहागमणका । तेण य गणियं अज्जे ! अमुग पन्जुसियं ओसहं अस्थि ॥१९३२॥ तुम गिहे तं वियरसु, सा भगई इमं रहस्सनिम्मविषं । कह भणसि तुमं ? कहियं केवलिणा वीरनाहेण ॥१९३।। तं सोउसा तुट्ठा बियरइ सोहस्त ओसहं तं तु। दव्वाइ विसुदेणं ओसह- वाण सा तेण ॥१९३४।। देवाउयं निबंधई, परित्तससारियत्तणं कुणई । दिवाणि तत्थ पंच य पाउम्भूयाणि सयराहं ॥१९३५॥ भावार्थ---[हे सिह! ] तुम मेंढिक ग्राम मे जाओ। रेवती के पास जाकर कल्पे ऐसी औषध जो उसने अपने लिये तैयार करके रखी हुई है ले आओ। सिंह अणगार उस रेवती के घर गया। तब उसने हर्षित होकर अभ्युत्थान किया (उठी) । सात-आठ कदम आगे जाकर परमभक्ति पूर्वक वन्दना की। सिंह मुनि ने उसे कहा कि 'तुम्हारे घर तुम्हारे लिये तैयार की हुई जो औषध है वह मुझे दो, उसने कहा कि यह औषध मेंने एकान्त मे अर्थात् अपने घर में बनायी है जिस का किसी को पता नहीं। इसे तुम ने कैसे जाना ? मुनि ने कहा कि केवली (सर्वज्ञ) वीरनाथ (भगवान महावीर स्वामी) ने यह कहा है। द्रव्यादि से विशुद्ध इस औषधदान से रेवती ने देवायु का बन्ध किया। तथा परिमित संसारीपना किया। वहां दिव्य प्रगट हुए। विक्रम संवत् ११३९ में गुणचन्द्रगणि नामक विद्वान ने प्राकृत भाषा में गद्य-पद्य में बारह हजार श्लोक प्रमाण महावीरचरित्र रचा है,
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy