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न वह ज्ञानवान् ही कहला सकता है एवं न वह स्वपर का कल्याण ही कर सकता है। ऐसी अवस्था में मोक्ष की प्राप्ति भी कभी नहीं हो सकती।
निर्ग्रन्थ श्रमण के लिये नव कोटिक (हिंसा करना नहीं, कराना नहीं और करने वाले को भला जानना नहीं । मन से नही करना, वचन से नहीं करना और काया से नहीं करना इत्यादि। इस प्रकार ३४३=९ कोटिक) अहिंमा की सूक्ष्म व्याख्या को व्यवहार में लाने के लिये बाह्य प्रवृत्ति को विशेष नियन्त्रित कर जीवहिंसा तथा मांसाहार आदि का सर्वथा निषेध किया है । निर्ग्रन्थ श्रमणों की चर्या सदा मे ही उग्र चली आ रही है और उनके त्याग, संयम, तप तथा अहिमा का स्वरूप अनुपम एवं अलौकिक रहता आया है। इसलिए उसके चारित्र की गहरी छाप तत्कालीन जनता पर पड़ना स्वाभाविक था। यही कारण है कि निर्ग्रन्थ श्रमणों की चर्या का उस समय के मानव समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव था, जिससे आकर्षित होकर शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने पापित्य निर्ग्रन्थ परम्परा में दीक्षा ग्रहण की तथा उनके तत्त्वज्ञान को जाना। उन्होंने अपनी निर्ग्रन्थचर्या में प्रवेश करने से पहले स्पष्ट लिखा है कि-"मै प्रसिद्ध श्रमण नायकों का तत्त्वज्ञान जान लेने के उद्देश्य से राजगृह जाता हूँ।" वहाँ जाकर निर्ग्रन्थ धर्म में दीक्षित होकर जिस चर्या का उन्होंने आचरण किया है उसमें उन्होंने इस बात का भी स्पष्ट उल्लेख किया है कि-"उस अवस्था में मैं मत्स्य-मांस-मदिरा आदि का सेवन नहीं करता था।" इससे यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ आचार-विचार में प्राण्यंग मत्स्य-मांसादि के भक्षण का सर्वथा निषेध है।
उपर्युक्त विवेचन को ध्यान में रखते हुए अगले खण्ड में हम निम्नलिखित मुद्दों पर विचार करेगे, जिससे यह बात स्पष्ट फलित हो जायगी कि भगवान महावीर का तथा जैन निम्रन्थ श्रमणों का मांसाहार करना कदापि संभव नहीं हो सकता, अतः इन सूत्रपाठों के शब्दों का सामिषाहार अर्थ करना नितान्त अनुचित ही है ।