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बनते हैं और परलोक में दुर्गति के अधिकारी बनते हैं। और जो यह कहते हैं कि बड़े बकरे को मारकर और मिर्च-पीपर डाल कर तैयार किये हुए मांस के भोजन के लिए कोई निमंत्रण दे तो हम उस मांस को खा सकते हैं और उस में हमें कोई पाप नहीं लगता, वे अनार्यधर्मी और रसलोलुपी हैं। भोजन करने वाले पाप को न जानते हुए भी पाप का आचरण करते है। जो कुशल पुरुष है वे मन से भी ऐसे आहार की इच्छा नहीं करते और न ही ऐसे मिथ्या वचन बोलते हैं।
"जैन मुनि सब जीवों को दया की खातिर पाप-दोष का वर्जन करते हए दोष की शंका से भी ऐसे आहार को ग्रहण नहीं करते । संसार में संयतों का ही धर्म है। इस आहारशुद्धि रूप समाधि और शील गुण को प्राप्त कर जो वैराग्य भाव से निर्ग्रन्थ (जैन मुनि) धर्म का पालन करते हैं, वही तत्त्वज्ञानी मुनि इस लोक में कीर्ति प्राप्त करते है।" ___ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ श्रमण सदा इस बात की सावधानी रखते हैं कि उनके द्वारा छोटे-से-छोटे किटाणु की भी हिंसा न हो । इसीलिये वे रात्रि को भोजन भी नहीं करते यानी सूर्यास्त के बाद वे कोई वस्तु खाते पीते नहीं । रात्रि को दीपक भी नहीं जलाते, इसलिये कि उस पर पतंगों के गिरने की सम्भावना रहती है। वे उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते, खाते-पीते सब अवस्थाओं में सदा इस बात की सावधानी रखते हैं कि किसी भी प्रकार से बड़े से लेकर छोटे-से-छोटे जीवजन्तु की भी हिंसा न हो जाय। वे वर्षा ऋतु में ग्रामान्तर नहीं जाते, एक ही नगर अथवा ग्राम में वास करते हैं, क्योंकि इस ऋतु में असंख्य सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाने से ग्रामान्तर जाने-आने से हिंसा होना सम्भव है । वे छ. जीवनिकाय को यत्न पूर्वक रक्षा करते हैं।
इसी स्तम्भ में निग्रन्य मुनि आईक के संवाद में यह भी स्पष्ट वर्णन है कि उन्होंने बौद्ध भिक्षु को मांसाहार में दोष बतलाते हुए बतलाया है प्राण्यंग मासाहार करने वाला व्यक्ति न तो संयमी ही बन सकता है और