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________________ ( ६० ) जैसे कोई तिन्दुक वृक्ष का तना अनेक वर्षों की धूल से भर जाता है, मेरी देह वैसी हो गयी थी। पर मुझे ऐसा नहीं लगता था कि धूल की परतें में स्वयं झाड़ लूं या दूसरा कोई व्यक्ति मुझे हाथ से निकाल दे । "में बड़ी सावधानी से आता जाता था। पानी की बूंदों पर भी मेरी तीव्र दया रहती थी । ऐसी विषम अवस्था में फंसे हुए सूक्ष्म प्राणी का भी नाश मेरे हाथों से न हो जावे इसके लिए में बहुत सावधानी रखता था। ऐसी मेरी जुगुप्सा ( हिंसा के प्रति अरुचि) थी । "मैं किसी भयावने जंगल में रहता था । जो कोई सांसारिक प्राणी उस अरण्य में प्रवेश करता, उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे, वह इतना भयंकर होता था । जाड़ों में भयानक हिमपात होने के समय में खुली जगह में रहता था और दिन में जंगल में घुस जाता था। गर्मी के मौसम के अन्तिम महीने में दिन के समय खुली जगह में रहता था और रात को जंगल में चला जाता था ।" ( ध० को० कृत भगवान् बुद्ध पृष्ठ ६८-७१ ) इस तपस्या के बारे में गौतम बुद्ध स्वयं कहते हैं- "मेरा शरीर ( दुर्बलता की ) चरम सीमा तक पहुंच गया था। जैसे अस्सी वर्ष वाले की गांठें, वैसे ही मेरे अङ्ग-प्रत्यङ्ग हो गये थे । जैसे ऊंट के पैर कैसे हो मेरा कूल्हा हो गया था । जैसे सूओं की ( ऊंची-नीची) पांती वैसे ही पीठ के कांटे हो गये थे। जैसे शाल की पुरानी कड़ियाँ टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है, वैसी ही मेरी पांसुलियां हो गयी थीं । जैसे गहरे कुएं में तारा वैसे ही मेरी आँखें दिखाई देती थी। जैसे कच्ची तोड़ी हुई कड़वी लोंकी हवा धूप मे चुचक जाती है, मुर्झा जाती है, वैसे ही मेरे सिर की खाल चुचक - मूर्झा गयी थी । उस अनशन से मेरे पीठ के काँटे और पैर की खाल बिल्कुल सट गयी थी । यदि मे पाखाना या पेशाब करने के लिए उठता तो वहीं बहरा कर गिर पड़ता । जब में काया को सहराते हुए हाथ से गात्र को मसलता तो काया से सडी जड़ वाले रोम झड़ पड़ते । मनुष्य कहते, श्रमण गौतम काला है, कोई कहते मँगुर वर्ण है । मेरा
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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