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थे ऐसा उल्लेख जैनागमों में तथा बौद्ध पिटकों में अनेक स्थलों पर मिलता है।
निग्रंथ संप्रदाय के ऐतिहासिक निर्यामक तेईसवें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ जी थे। इनका निर्वाण बुद्ध के जन्म से पूर्व १९३ वर्ष में हुआ था। उनकी शिष्यपरम्परा के निग्रंथों का अस्तित्व उस समय राजगह में सर्वाधिक था।
तथागत गौतम बुद्ध, निग्गंठ नायपुत्त (श्रमण भगवान् महावीर) से प्रथम पंदा हुए और प्रथम ही परिनिर्वाण प्राप्त किया । यह बात ऐतिहासिक दृष्टि से अब सिद्ध हो चुकी है। भगवान महावीर तथा गौतम बुद्ध समकालीन थे तथा उन दोनों के अपने-अपने धर्म-प्रचार का क्षेत्र एक ही रहा। कई वर्षों तक एक दूसरे से मिले बिना वे दोनों अपनेअपने सिद्धान्तों का प्रचार करते रहे।
बुद्ध ने निग्रंथों के तपःप्रधान आचारों की अवलेहना की है, ऐसा वर्णन बौद्ध पिटकों में पाया जाता है। परन्तु बुद्ध ने खुद अपनी बुद्धत्वप्राप्ति के पहले की तपश्चर्या और चर्या का जो वर्णन किया है उसके साथ तत्कालीन निग्रंथ आचार का जब हम मिलान करते हैं तथा कपिलवस्तु के निग्रंथ श्रावक "बप्प शाक्य", जो कि भगवान पार्श्वनाथ के निग्रंथ श्रमणों का उपासक था, उस का निर्देश सामने रखते हैं (सुस की अट्ठकथा में बप्प को गौतम बुद्ध का चाचा कहा है) एवं बौद्ध पिटकों मे पाये जाने वाले खास आचार और तत्त्व-ज्ञान सम्बन्धी कुछ पारिभाषिक शब्द जो केवल निर्यथ प्रवचन में ही पाये जाते हैं इन सब पर विचार करते हैं तो ऐसा मानने में कोई सन्देह नहीं रहता कि "तथागत गौतम बुद्ध" ने भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा को स्वीकार किया था । अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी अपनी अन्तिम पुस्तक “पार्श्वनाथा चा चातुर्याम धर्म" (पृष्ठ २४, २६) में ऐसी ही मान्यता सूचित की है।