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को स्वीकार करते हुए भी मांसाहारी थे। वे अहिंसा को इस रूप से मानते थे कि पशुओं को स्वयं हत्या नहीं करना। परन्तु उन्हें कसाई के वहां से ऐसा मांस खरीदने में कोई आपत्ति नहीं थी, जिसे उन्होंने स्वयं न मारा हो ; बौद्ध ग्रंथों से हम ऐसा जान सकते हैं। जब तथागत गौतम बुद्ध स्वय विद्यमान थे तब भी यह प्रथा प्रचलित थी। जब बौद्ध भिक्षु इस प्रकार (बे रोक-टोक) मांसाहार करते थे तब बौद्ध गृहस्थों को भी मांसभक्षण का कोई प्रतिबन्ध नहीं था। यदि बौद्धों से जैनों की कोई मौलिक विशेषता खोजने जावे तो हमें यह निःसंदेह कहना पड़ेगा कि जैन कट्टर शाकाहारी हैं । __हम वैदिक धर्मानुयायी मनु, बोधायन तथा उनके बाद के वैदिक सिद्धान्त निर्माताओं के धर्मशास्त्रों में से नीचे लिखे विचार पाते हैं :
मधुपर्क मे बोधायन ने २५ या २६ ऐसे पशुओं की सूची दी है, जो कि (मासाहार के लिये) वध करने योग्य हैं ।
वैदिक धर्मशास्त्रों में एक और विशेष बात यह भी पायी जाती है कि उन्होंने खेती-बाडी को एक निकृष्ट कार्य मान कर उसे चौथे वर्ण यानी शूद्रों के करने के योग्य बतलाया है। द्विजों ने खेती-बाड़ी के धंधे को स्वय करना अपनी हीनता माना है । मात्र इतना ही नही परन्तु ऊंचे वर्णों के धर्मप्रचारको ने तो हल को छूने तक का विचार मात्र करना भी नितान्त अनुचित माना है। ___ साराश यह है कि वैदिक धर्मानुयायी मांसभक्षण को उत्तम मानते थे तथा खेती-बाड़ी को निकृष्ट । जनो ने मांस भक्षण को एक दम त्याज्य माना और खेती-बाड़ी को जैन श्रमणोपासकों (श्रावकों) के लिये त्याज्य नहीं माना। उपासकदशांग जैनागम में भगवान महावीर के जिन दस श्रावकों का चरित्र चित्रण किया गया है, उनका मुख्य व्यवसाय प्रायः खेती-बाड़ी ही था।