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करुणा के प्रत्यक्ष अवतार, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वयं मांसाहार कैसे कर सकते थे ? कदापि नहीं कर सकते थे ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि अन्य मांस-मत्स्यभक्षी बौद्ध, वैदिक आदि धर्मों के समान जैनधर्म भारत की सीमाओं को न लांघ सका । इसका मुख्य कारण यही है कि यह मत्स्य- मांसादि अभक्ष्य भक्षण का सदा से निषेध करता आया है । इसीलिये मांसाहारी देशों में इसका प्रसार न हो पाया ।
इस उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न तो भगवान् महावीर आदि जैन तीर्थकर अथवा निर्ग्रथ श्रमण मांसाहार ग्रहण कर सकते हैं और न ही श्रमणोपासक गृहस्थ (श्रावक-श्राविकाएं)
कोखा अथवा पका सकते हैं । यही कारण है कि वर्तमान जैन समाज भी कट्टर निरामिषाहारी है तथा वे सराकादि जातियाँ भी जो सैकड़ों वर्षों से जैनधर्म को भूल चुकी हैं उनके ऊपर भी आज पर्यन्त जैन तीर्थकरों की अहिसा की इतनी गहरी छाप है कि वे आज भी कट्टर निरामिषाहारी रहे है । मात्र इतना ही नहीं किन्तु जो लोग जैन समाज में होते हुए किसी भी प्रकार का व्रत ग्रहण नही करते वे भी मत्स्य- मांस जैसे अभक्ष्य पदार्थो का सेवन नही करते ।
तथागत गौतमबुद्ध, बौद्धभिक्षु तथा बौद्धगृहस्थ खुलमखुला मांसाहार करते थे इसी का परिणाम है कि आज भी सारा बौद्ध जगत् सर्व भक्षी है । श्री धर्मानन्द कौशाम्बी ने "भगवान् बुद्ध" नामक पुस्तक में जिन जैन सूत्रों को लेकर यह सिद्ध करने की हास्यास्पद चेष्टा की है कि "भगवान् महावीर और उनके अनुयायी श्रमण मांसाहार करते थे" । उनके किए हुए अर्थ के साथ भगवान् महावीर की जीवनचर्या तथा उपदेशों ( आचार-विचार ) से बिलकुल मेल नहीं खाता। इस से यह स्पष्ट है कि उनके द्वारा किया हुआ इन सूत्रों का अर्थ ठीक नही है परन्तु इन का दूसरा ही अर्थ होना चाहिये ।
वास्तव में बात यह है कि अध्यापक कौशाम्बी बौद्ध दर्शन के विद्वान