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मिक्षा के लिए निकले। उन्होंने मार्ग में किसी अपराधी को देखा, जिसे राजपुरुषों ने घेरा हुआ था। उसे बुरी तरह पीटा जा रहा था। उसे उसी का मांस काट-काट कर खिलाया जा रहा था । उस की दुर्दशा को देखकर इन्द्रभूति गौतम कर्म-फल का विचार करने लगे और उनका हृदय करुणा से द्रवित होगया । वापिस लौट कर उन्होंने भगवान् महावीर से पूछा, भन्ते ! "जिस अपराधी को मैने राजपथ पर देखा है वह अपने पहले जन्म में कौन था ! उसने अपने पिछले जन्म में क्या बुरे कर्म किये थे जिससे उसकी यह दुर्दशा हो रही है ?"
भगवान् बोले - " गौतम ! यह अपने पूर्व जन्म मे अण्डों का व्यापारी था। स्वयं भी मांस- अण्डे आदि भक्षण करता था इसका नाम निक था और अण्डों के व्यापार के कारण यह निह्नक अण्ड बनिये के नाम से प्रसिद्ध हो गया था । उसने इस काम के लिए नौकर रखे हुए थे, जो मोरनी मुर्गी, कबूतरी आदि के अण्डे खरीद कर लाते और बाजार में जाकर बेचा करते थे। वह स्वयं भी अण्डों को भूनता, तलता और खाता था। शराब पीकर नशे में चूर रहता था। भगवान् बोले- हे गौतम! यह इतना पापी था जिसके फलस्वरूप अपने जीवन के दिन पूरे कर वह तीसरी नरक में जाकर पैदा हुआ। वहाँ दारुण दु.ख भोग कर यहां विजय चोर के घर जन्मा है । इस जन्म में भी अपने किये का फल भोग रहा है ।
इन उपर्युक्त उद्धरणों से भगवान् महावीर के आदर्श अहिंसामय जीवन का और उनके द्वारा प्रदत्त अहिंसा के उपदेश का पूरा-पूरा परिचय मिल जाता है।
इससे स्पष्ट है कि श्रमण भगवान् महावीर ने अपने इन विचारों को स्वयं अपने आचरण में उतारा और फिर मानव समाज को प्राणी मात्र की अहिंसा का अपनी वाणी और करणी द्वारा प्रभावोत्पादक उपदेश दिया। इसी के परिणाम स्वरूप आज भी जैन अहिंसा विश्व में अलौकिक स्थान रखती है।