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होते हैं वे समझते हैं कि यही जीवन का आनन्द है, परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि जिसे माँस अथवा मांस का टुकड़ा प्रिय है वह भी उसी प्रकार पकाया व खाया जाएगा।
८ - अनुयोगद्वार सूत्र में : - जिस प्रकार तुझे दुःख अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार किसी जीव को भी दुःख अच्छा नहीं लगता । यह जान कर जो न स्वयं किसी को मारता है और न मारने को प्रेरणा ही करता है, सभी के प्रति समभाव रखता है, वही श्रमण है । ९ - दशर्वकालिक सूत्र में शराब छोड़ दे, माँस छोड़ दे, विकृति ( रस- पुष्ट ) भोजन का त्याग कर। बार-बार कायोत्सर्ग ( ध्यान ) तथा स्वाध्याय योग में लीन हो जा ।
१० -- ज्ञानी होने का सार यह है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिसा का सिद्धान्त ही सर्वोपरि है— मात्र इतना ही विज्ञान है । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता । सीलिए निग्रंथ ( जैन मुनि) घोर प्राणिवध का सर्वथा त्याग करे ।
११ - जो औषध में माँस खिलावे या सम्मति दे वह नरक में जाता है । १२ -- माँस दुर्गन्ध वाला है, वीभत्म है, शरीर के मलों से बना हुआ है, अपवित्र है और नरक में ले जाने वाला है । अतः त्याज्य है ।
१३ - माँस में क्षण भर में ही अनन्त सूक्ष्म कीटाणुओं का जन्म और विनाश होता है । वह नरक के मार्ग में ले जाने वाला भोजन है। कौन बुद्धिमान ऐसे मांस को खा सकता है
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१४ -- माँस कच्चा हो या पकाया हुआ उसके प्रत्येक टुकड़े में निर्वाध रूप से निगोद के जीव उत्पन्न होते हैं ।
१५ – आचार्य रत्नशेखर सूरि-संबोध सप्ततिका में स्पष्ट लिखते हैं :- कि आगम में माँस मदिरा आदि को जीवों का उत्पत्ति स्थान बतलाया है।
"आमासु य पवकासु य विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । आयंतिअमुवाओ भनियो उ णिगोअजीवाणं ॥ १ ॥