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________________ ( ३९ ) होने वाली हिंसा को रोकने का भरसक प्रयत्न तो वे आजन्म करते ही रहे । इसीलिये तो उन्होंने अहिसा को जैन श्रमणों तथा जैन श्रावकों के व्रतों में सर्वप्रथम स्थान दिया है: " तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा विट्ठा, सव्वभएस संजमो ॥ (द० अ० ६ गा० ९) एवं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसई कंचनं । अहिंसा समयं चेब, एतावंतं विजानिया ॥ " (सू० भु० १ अ० ११ गा० १० ) अर्थात् अहिसा को प्रभु महावीर ने ( साधु और श्रावक के व्रतों में ) सर्वप्रथम रखा है। अहिंसा को उन्होंने कल्याणकारी ही देखा है । सर्व जीवों के प्रति संयमपूर्ण जीवनव्यवहार ही उत्तम अहिंसा है । ज्ञानियों के वचनों का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न की जाए । अहिंसा के द्वारा प्राणियों पर समभाव हो धर्म समझना चाहिये । सारांश यह है कि जैन तीर्थकर अहिंसा की सुरक्षा के लिये आजन्म ffee रहे और अनेक कठिनाइयों के बीच भी इन्होंने अपने आदर्शों द्वारा विश्व को मंत्री तथा करुणा का पाठ पढ़ाया है। उनके ऐसे ही आदर्शों से जैन संस्कृति उत्प्राणित होती आयी है और अनेक कठिनाइयों के बीच भी उसने अपने आदर्शों के हृदय को किसी न किसी तरह संभालने का प्रयत्न किया है, जो भारत के धार्मिक, सामाजिक और राजकीय इतिहास में जीवित है ।
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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