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अहिंसा के इस उपर्युक्त विवेचन से भगवान् महावीर के आदर्श अहिंसामय जीवन का और उनके द्वारा प्रदत्त अहिंसा के उपदेश का पूरा-पूरा परिचय मिल जाता है।
केवल भगवान महावीर ने ही नहीं परन्तु सब जैन तीर्थंकरों ने प्राणिवध एवं मांसाहार का विरोध अपने अपने समय में किया था।
एक समय था जब कि केवल क्षत्रियों में ही नहीं पर सभी वर्गों में मांस खाने की प्रायः प्रथा होगी। उस युग में यदुवंशीय नेमिकुमार ने एक अद्भुत कदम उठाया। उन्होंने अपनी शादी पर भोजन के वास्ते कतल किये जाने वाले पशु-पक्षियों की आर्त मूक वाणी से सहसा पिघल कर निश्चय किया कि वे ऐसी शादी न करेंगे जिसमें पशु पक्षियों का वध होता है। उस गंभीर निश्चय के साथ वे सबको सुनी अनसुनी करके बारात से शीघ्र वापिस लौट आये। द्वारका से सीध गिरनार पर्वत पर जाकर उन्होंने तपस्या की। भर जवानी में उन्होंने सांसारिक सुखभोगो की परवाह न करते हुए राजपुत्री, राजीमती को त्यागकर
और ध्यान-तपस्या का मार्ग अपना कर चिरप्रचलित पशु-पक्षीवध की प्रथा पर इतना सख्त प्रहार किया कि गुजरात भर में तथा उसके प्रभाव वाले दूसरे प्रान्तो में भी यह प्रथा सदा के लिये समाप्त हो गई।
भगवान् पार्श्वनाथ ने भी जीवहिंसा के विरोध करने के कारण महान् उपसर्ग सहे। दुर्वासा जैसे सहज कोपी कमठ नामक तापस तथा उनके अनुयायियों की नाराजगी का खतरा उठा कर भी एक जलते साँप को गीली लकड़ी से बचाने का प्रयत्न किया ।
दीर्घतपस्वी महावीर ने भी स्थान-स्थान पर तथा समय-समय पर अपनी अहिंसक वृत्ति का अपने जीवन में अनेक बार परिचय दिया। १. जब जंगल में वे ध्यानस्थ खड़े थे एक प्रचण्ड विषधर (चण्डकौशिक) ने उन्हें डस लिया, उस समय वे न केवल ध्यान में अचल ही रहे परन्तु उन्होंने मैत्री भावना का उस विषधर पर प्रयोग किया जिससे वह सदा के लिये वर