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( ३६ ) इस प्रकार सुख की मिथ्या भावना और संकुचित वृत्ति के कारण व्यक्तियों
और समूहों में द्वेष बढ़ाता है, शत्रुता की नींव डालता है और इसके फलस्वरूप पीड़ित एवं पददलित जीव बलवान होकर बदला लेने का निश्चय तथा प्रयत्न करते हैं और बदला लेते भी हैं। इस तरह हिंसा और प्रतिहिंसा का ऐसा विषचक्र तैयार हो जाता है कि लोग संसार के सुख को स्वयं ही नरक बना देते हैं। हिंसा के इस भयानक स्वरूप के विचार से महावीर नै अहिंसातत्व में ही समस्त धर्मों का, समस्त कर्तव्यों का और प्राणिमात्र की शान्ति का मूल देखा। यह विचार कर उन्होंने वैरभाव को तथा कायिक और मानसिक दोषों से होने वाली हिंसा को रोकने के लिये तप और संयम का अवलम्बन लिया। ___ संयम का सम्बन्ध मुख्यतः मन और वचन के साथ होने के कारण उन्होंने ध्यान और मौन को स्वीकार किया। भगवान महावीर के साधकजीवन में संयम और तप यही दो बातें मख्य हैं और उन्हें सिद्ध करने के लिये उन्होंने साढ़े बारह वर्षों तक जो प्रयत्न किया और उसमें जिस तत्परता और अप्रमाद का परिचय दिया वैसा आज तक की तपस्या के इतिहास में किसी व्यक्ति ने दिया हो, वह दिखलाई नहीं देता। गौतम बुद्ध बोदि में महावीर के तप को देह-दुःख और देहरमन कह कर उसकी मबहलमा की है। परन्तु यदि वे सत्य तथा न्याय के लिये भगवान महावीर के जीवन पर तटस्थता से विचार करते तो उन्हें यह मालूम हुए बिना कदापि न रहता कि भगवान महावीर का तप शुष्क बेहवर्मन नहीं था। दे संवम और तप दोनों पर समान रूप से जोर देते थे। वे मानते थे कि यदि तप के अभाव से सहनशीलता कम हई तो दूसरों की सुखविधा की आहुति देकर अपनी सुखसुविधा बढ़ाने की लालसा बढ़ेगी और उसका फर्स यह होगा कि संघम न रह पायेगा। इसी प्रकार संबन के भाव में कोरा तप भी पराधीन प्राणी पर अनिच्छा पूर्वक आ पड़े देह कष्ट की तरह निरर्थक है।
ज्यों-ज्यों संयम और तप की उत्कटता से महावीर माहिंसातत्व के