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भगवान् महावीर को बौद्ध ग्रन्थों में 'निगष्ठ नाथपुत' के नाम से सम्बोधित किया है । बौद्धों के 'सुत्तपिटक' नामक ग्रन्थ में निर्ग्रन्थों (जनों) के मत की काफी जानकारी मिलती है । इन्हीं के "मज्झिम निकाय के चूल दुक्खक्खन्ध सुत्त" नामक ग्रन्थ में वर्णन है कि राजगृह में निर्ग्रन्थ खड़े-खडे तपश्चर्या करते थे । निगष्ठ नाथपुत्त ( महावीर ) सर्वश-सर्वदर्शी थे । चलते हुए, खड़े रहते हुए, सोते हुए या जागते हुए, हर स्थिति में उनकी ज्ञानदृष्टि कायम रहती थी ।
भगवान् महावीर का आचार-
भगवान् महावीर पाँच महाव्रतधारी तथा रात्रिभोजन के सर्वथा त्यागी थे। इन व्रतों का स्वरूप जैन श्रमण के आचार में कर आये हैं ।
भगवान् महावीर दीक्षा (सन्यास) लेने के बाद एक वर्ष तक मात्र एक देवदूष्य वस्त्र सहित रहे, तत्पश्चात् सर्वथा नग्न रहते थे। हाथों की हथेलियो मे भिक्षा ग्रहण करते थे । उनके लिये तैयार किये हुए अन्नादि आहार को वे स्वीकार नही करते थे और न ही किसी के निमन्त्रण को स्वीकार करते थे । मत्स्य, मॉस, मदिरा, मादक पदार्थ, कन्द, मूल आदि अभक्ष्य वस्तुओं को कदापि ग्रहण नहीं करते थे । प्रायः तपस्या तथा ध्यान में ही रहते थे । छ. छः मास तक निर्जल उपवास ( सब प्रकार की खानेपीने की वस्तुओं का त्याग ) करते थे । दाढ़ी मूछ के बाल उखाड़ कर केश लोच करते थे । स्नानादि के सर्वथा त्यागी थे । छोटे-से-छोटे तथा बड़े-से-बड़े किसी भी प्राणी की हिंसा न हो जाय इसके लिए वे बहुत सतर्कता पूर्वक सावधानी रखते थे । वे बडी सावधानी से चलते-फिरते, उठते-बैठते थे । पानी की बूदो पर भी तीव्र दया रहती थी । सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव का भी नाश न हो जाय इसके लिये बहुत सावधानी रखते थे । भयावने जंगलों, अटवियों आदि निर्जन जगहों में ध्यानारूढ रहते थे । वे स्थान इतने भयंकर होते थे कि यदि कोई सांसारिक मनुष्य वहाँ प्रवेश करता तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते। जाड़ों में हिमपात
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