SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २ ) (क) जिस मकान में स्त्री, पशु, नपुंसक का निवास हो उसमें न (ख) स्त्री के हाव-भाव विलास आदि का पान न करता । (ग) स्त्री-पुरुष का एक आसन पर न बैठना । (घ) स्त्री के अंगोपांगों को रागदृष्टि से न देखना। (a) स्त्री-पु षों के कामुकता पूर्ण शब्द न सुनना। (च) अपने गृहस्थावस्था के पूर्वकालीन भोगमय जीवन को भुला देना और ऐसा अनुभव करना कि शुद्ध सापक के रूप में मेरा नया जन्म हुआ है। • (छ) सरस, पौष्टिक, विकारजनक, राजस और तामस आहार न करना। (ज) मर्यादा से अधिक आहार नहीं करना । अधिक-से-अधिक बत्तीस छोटे कोर (कवल) भोजन करना । (झ) स्नान, मंजन, शृंगार आदि करके आकर्षक रूप न बनाना। ५. अपरिग्रह महाव्रत-साधु परिग्रह मात्र का त्यागी होता है, फिर भले ही वह घर हो, खेत हो, धन-धान्य हो, या द्विपद-चतुष्पद हो, अथवा अन्य भी कोई पदार्थ हो । वह सदा के लिये मन-वचन-काया से समस्त परिग्रह को छोड़ देता है। पूर्ण असंग, अनासक्त, अपरिग्रही और सब प्रकार के ममत्व से रहित होकर विचरण करता है। साधुधर्म का पालन करने के लिये उसे जिन उपकरणों की अनिवार्य आवश्यकता होती है उनके प्रति भी उसे ममत्व नहीं होता। ___यद्यपि मूर्छा को परिग्रह कहा गया है, तथापि बाह्य पदार्थों के त्याग से अनासक्ति का विकास होता है, अतएव बाह्य पदार्थों का त्याग भी आवश्यक माना गया है। ___ जैन साधु किसी प्राणी अथवा वाहन की वारी नहीं तो वह सवा नंगे पाँव, नंगे सिर सर्वत्र पाद विहार बार बम-फिरकर सब जीवों को
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy