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"पाणिवह मुसावाया अवत्त- मेहुण- परिग्गहा विरओ । राईमोयणविरओ, जीवो भवद
अणreat ।"
१. अहिंसा महाव्रत - जीवन पर्यन्त त्रस ( हलन चलन की सामर्थ्यं वाले) और स्थावर (एक स्थान पर स्थिर रहने वाले) सभी जीवों की मन, वचन, काया से हिंसा न करना, दूसरों से न कराना, और हिंसा करने वाले को अनुमोदन न देना - अहिंसा महाव्रत है ।
साधु प्राणिमात्र पर करुणा की दृष्टि रखता है। अतएव वह निर्जीव हुए अचित्त जल का ही सेवन करता है। अग्निकाय के जीवों की हिंसा से बचने के लिये अग्नि का उपयोग नहीं करता । पंखा आदि हिला कर वायु की उदीरणा नहीं करता । पृथ्वीकाय के जीवों की रक्षा के लिये जमीन खोदने आदि की क्रियाएँ नही करता । वह अचित्त-जीवरहित आहार को ही ग्रहण करता है । मांसाहार सर्वदा सजीव होने से उसका सर्वथा त्यागी होता है । महाव्रतधारी जैन साधु स्थावर और चलते-फिरते त्रस जीवों की हिंसा का पूर्ण त्यागी होता है ।
जैन मुनि रात्रि भोजन का भी त्यागी होता है, क्योंकि रात्रि - भोजन में आसक्ति और राग की तीव्रता होती है तथा जीव-जन्तु आदि के गिर जाने से हिंसा एवं मांसाहार दोष का लगना भी संभव है ।
श्रमण भगवान् महावीर फरमाते हैं कि:
सूर्य के उदय से पहले तथा सूर्य के अस्त हो जाने के बाद निर्ग्रय मुनि को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिये । क्योंकि संसार में बहुत से त्रस जीव ( चलने-फिरने, उड़ने वाले) और स्थावर (एक स्थान पर रहने वाले) प्राणी बड़े ही सूक्ष्म होते हैं । रात्रि में देखे नहीं जा सकते, तो रात्रि में भोजन कैसे किया जा सकता है ?
जमीन पर कहीं पानी पड़ा होता है, कहीं बीज बिखरे होते | हैं और कहीं पर सूक्ष्म कीड़े-मकौड़े आदि जीव होते हैं। दिन में उन्हें देख भाल कर बचाया जा सकता है, परन्तु रात्रि को उन्हें बचाकर भोजन करना