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निम्रन्थ श्रमण जैन साधु-साध्वी] का श्राचार
जैनागमों में त्यागमय जीवन अङ्गीकार करने वाले व्यक्ति की योग्यता का विस्तृत वर्णन किया है। आयु का कोई प्रतिबन्ध न होने पर भी जिसे शुभ तत्त्व-दृष्टि प्राप्त हो चुकी है, जिसने आत्मा-अनात्मा के स्वरूप को समझ लिया है, जो भोग-रोग और इन्द्रियों के विषयों को विष समझ चुका है तथा जिसके मानस सर में वैराग्य की ऊमियाँ लहराने लगी हैं वही त्यागी निग्रंथ बनने के योग्य है । पूर्ण विरक्त होकर शरीर सम्बन्धी ममत्व का भी त्याग करके जो आत्म-आराधना मे सलग्न रहना चाहता है वह जैन मनिधर्म अर्थात जैन दीक्षा ग्रहण करता है।
उसे घर-बार, धन-दौलत, स्त्री-परिवार, माता-पिता, खेत-ज़मीन आदि पदार्थों का त्याग करना पड़ता है। मच्चा श्रमण वही है जो अपने आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है। वह अपनी पीड़ा को वरदान मान कर तटस्थ भाव से सहन कर जाता है, मगर पर-पीड़ा उसके लिये अमह्य होती है। जैन साधु वह नौका है जो स्वयं 'रती है तथा दूसरों को भी तारती है।
भगवान महावीर कहते हैं-साधुओ ! श्रमण निग्रंथों के लिये लाधव-कम-से-कम साधनों से निर्वाह करना, निरीहता-निष्काम वृत्ति, अमूर्छा-अनासक्ति, अगृद्धि, अप्रतिबद्धता, शान्ति, नम्रता, सरलता निर्लोभता ही प्रशस्त है।
जैन भिक्षु के लिये पाँच महाव्रत अनिवार्य हैं। उन्हें रात्रिभोजन का भी सर्वथा त्याग होता है। इन महाव्रतों का भलीभांति पालन किये बिना कोई साधु नहीं कहला सकता। महाव्रत इस प्रकार हैं :