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( २१ ) रहते रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जैन धर्मानुयायी श्रमणोपासक गृहस्थ न तो मांस खरीद कर ला सकते हैं, न पका सकते हैं, न खा सकते हैं और न ही अपने हाथों से पंचेन्द्रियादि जीवों का वध करके मांस बना सकते हैं।
हम पहले स्तम्भ में “सराक जाति" का परिचय दे आये हैं, जिस में उनका खान-पान-आचार सम्बन्धी संक्षिप्त विवरण (नं. ३) लिखा है। उससे यह स्पष्ट है कि उन लोगों का आचार और विचार भी श्रावक के इन उपयुक्त व्रतों के सर्वथा अनुकूल चला आ रहा है। अतः स्पष्ट है कि जन संघ में सामिषाहार का प्रचलन प्राचीन काल से लेकर आज पर्यंत कदापि संभव नहीं है ।