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(२०) विवेकशून्य मनुष्यों की मनोवृत्ति चार प्रकार के व्यवं पॉर्प की उपार्जन करती है
१. अपध्यान-दूसरों का बुरा विचारना ।
२. प्रमादाचरित-जाति कुल आदि का मद करना तथा विकया, निम्दा आदि करना ।
३. हिंस्रप्रदान-हिंसा के सोधम-तलवार, बन्दूक, तोपें, बम आदि का निर्माण करके दूसरों को देना, संहारक शस्त्रों का आविष्कार करना।
४. पापोपदेश-पापजनक कार्यों का उपदेश देना ।
इस व्रत को अङ्गीकार करनेवाला साधक कामवासनावर्धक वार्तालाप मही करता। कामोत्तेजक कुचेष्टाएँ नहीं करता। असभ्य फहड़ वचनों का प्रयोग नहीं करता। हिंसाजनक शस्त्रों का निर्माण नहीं करता, इनके आविष्कार व विक्रय मे भाग नही लेता और भोगोपभोग के योग्य पदायों मे अधिक आसक्त नहीं होता । ___ इस प्रकार श्रावक-श्राविकाएँ हिंसा-सामिषाहार आदि दोषों से बचने के लिये उपर्युक्त व्रतों का सावधानी से पालन करते हुए सदा जागरूक
(5) पाँच उदुंबर फलों के दोष
उदबर-वट-प्लक्ष-काकोदुबर-शाखिनाम् ।
पिप्पलस्य च नाश्नीयात्फलं कृमिकुलाकुलम् ॥ ४२ ॥ (च) रात्रिभोजन के दोष--
घोराधकाररुद्धाक्षः पतन्तो यत्र जन्तवः ।
नैव भोज्य निरीक्ष्यन्ते तत्र भुजीत को निशि? ॥ ४९ ॥ (छ) गोरस कच्चे से मिश्रित द्विदल के दोष
आमगोरससपृक्तद्विदलादिषु जन्तवः ।
दृष्टाः केवलिभिः सूक्ष्मास्तस्मात्तानि विवर्जयेत् ॥ ७१ ॥ (ज) जन्तु मिश्रित पुष्प-फल में बोष
जन्तुमिश्रं फलं पुष्पं पत्रं चान्यदपि त्यजेत् । संधानमपि संसक्तं जिनधर्मपरायणः ॥७२॥
(आचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र प्रकाश ३) ।