________________
( १८ ) (क) सातबा भोगोपभोगपरिमाण प्रत
एक बार भोगने योग्य आहार आदि भोग कहलाते हैं। जिन्हें पुनः पुनः भोगा जा सके, ऐसे वस्त्र, पात्र, मकान आदि उपभोग कहलाते हैं। इन पदार्थों को काम में लाने की मर्यादा बांध लेना “भोगोपभोगपरिमाण व्रत" है। यह व्रत भोजन और कर्म (व्यवसाय) से दो भागों में विभक्त किया गया है । भक्ष्य (मानव के खाने-पीने योग्य) भोजन पदार्थों की मर्यादा करने और अभक्ष्य (मानव के न खाने-पीने योग्य)पदार्थों का त्याग करने का इस व्रत के पहले भाग में विधान है। भोजन (भक्ष्य) पदार्थों की मर्यादा करने से लोलुपता पर विजय प्राप्त होती है तथा अभक्ष्य पदार्थों (मांस, मदिरा आदि) के त्याग से लोलपता के त्याग के साथ हिंसा का त्याग भी हो जाता है। दूसरे भाग में व्यापार संबन्धी मर्यादा कर लेने से पापपूर्ण व्यापारों का त्याग हो जाता है । ___इस व्रत को अङ्गीकार करने वाला साधक मदिरा, मांस, शहद, तथा दो घड़ी (४८ मिनट) छाछ में से निकालने के बाद का मक्खन (क्योंकि दो घड़ी के बाद मक्खन मे त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं), पाँच उदुम्बर फल (बड़-पीपल-पिलंखण-कठुमर-गलर के फल), रात्रिभोजन इत्यादि का त्याग करता है। क्योंकि इन सब में अस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है इस लिये इनके भक्षण से मासाहार का दोष लगता है, जो कि श्रावक के लिये सर्वथा वजित है। सारांश यह है कि ऐसे सब प्रकार के पदार्थ, जिनके
१. सकृदेव भज्यते यः स भोगोऽन्नस्रगादिकः । पुनः पुन. पुनर्नोग्य उपभोगोऽङ्गनादिकः ॥
(योगशास्त्र प्र० ३ श्लो०५)। २. मद्यं मांसं नवनीतं मधूदुम्बरपंचकम् ।
अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् ॥ ६॥ आम गोरस सम्पवतं द्विदल पूष्पितौदनम् । दघ्यहतियातीतं कुथिनान्न च वर्जयेत् ।। ७ ॥
(आ० हेमचन्द्रकृत योग शास्त्र प्र० ३) ।