SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ थे तभी से आपने सचित्त पदार्थों का सेवन करना छोड़ दिया था। यह बात जनागमों के अभ्यासी से छिपी नहीं है। जैन धर्मनिष्ठ गृहस्थ, जिन्हें श्रावक अथवा श्रमणोपासक कहते हैं, वे भी मांस खाने से स था परहेज करते हैं । मात्र इतना ही नहीं परन्तु रात्रिभोजन का सेवन भी सी लिये नहीं करते कि इस भोजन के साथ स जीवों का पेट में चले जाना संभव है। इस लिये मांसाहार का दोष भी लग सकता है। जब कोई भी व्यक्ति जैन धर्म स्वीकार करता है तब उसे श्रावक के बारह व्रतों में से सर्वप्रथम “स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत" ग्रहण करना पड़ता है. जिसका प्रयोजन यही है कि त्रस (हलन-चलन की क्षमता वाले) जीवों की हिंसा का त्याग और स्थावर (स्थिर) जीवों की हिंसा की यतना। मांस त्रस जीवों को मारने से बनता है, जब श्रावक के लिये त्रस जीवों की हिंसा का त्याग है तब वह मांस को कैसे ग्रहण कर सकता है ? आज भी जैन गृहस्थ, जिन्हें कि जैन धर्म पर श्रद्धा है, वे कदापि मांस भक्षण नहीं करते। इस कारण से आज भी यह बात जगत्प्रसिद्ध है कि यदि कोई व्यक्ति मांसभक्षण तथा रात्रिभोजन न करता हो तो लोग उसे तुरन्त कह देते हैं-"यह व्यक्ति जैनधर्मानुयायी है।" ____ यह तो हुई भगवान् महावीर, निर्गय मुनि तथा जैन गृहस्थों की बात। परन्तु आप यह जान कर आश्चर्यचकित होंगे कि जो जातियां किसी समय में जैन धर्म का पालन करती थीं किन्तु अनेक शताब्दियों से जैन श्रमणों का उनके प्रदेशों में आवागमन न होने से वे अन्य धर्मावलम्बियों के प्रचारकों के प्रभाव से जैन धर्म को भूल कर अन्य धर्म-सम्प्रदायों की अनुयायी बन चुकी हैं और उन्हें इस बात का ज्ञान है कि उनके पूर्वज जैन धर्मानुयायी थे वे आज तक भी मांस भक्षण तथा रात्रिभोजन और अभक्ष्य वस्तुओं का भक्षण नहीं करतीं। जिनमें से यहां एक ऐसी जाति का परिचय दे देने से हमारी इस धारणा को पुष्टि मिलेगी। बंगाल देश में, जहां आज भी मांस-मत्स्यादिभक्षण का खूब प्रचार है वहाँ सर्वत्र लाखों की संख्या में एक ऐसी मानव जाति पायी जाती है
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy