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अहिंसा धर्म की इतनी महिमा संसार के अन्य किसी धर्म में नहीं पायी जाती। कितना सुन्दर विचार है___ "स्थल से लेकर सूक्ष्म सब जीवों को अपने समान समझो और किसी को कष्ट मत पहुँचाओ, अपने में सबको देखो।" __इससे यह स्पष्ट है कि महाश्रमण भगवान महावीर की भावना प्राणीमात्र की रक्षा के लिये कितनी उत्कट थी। यह शाश्वत सिद्धांत जैनों में अब तक अटूट बना रहा है । जैन-मुनि-मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग मादि त्रस जीवो तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति स्थावर जीवों की हिंसा मन-वचन-काया से न तो स्वयं करते है, न दूसरों से करवाते हैं और न करनेवाले का अनुमोदन (प्रशंसा)ही करते हैं। जब कोई गृहस्थ जैन मुनि की दीक्षा ग्रहण करता है तब उसे सर्व प्रथम "प्राणातिपातविरमण' नामक महावत को अंगीकार करना पड़ता है, जिस का पालन वह अपने जीवन पर्यंत पूरी दृढ़ता के साथ करता है। सारांश यह है कि निग्रंथ श्रमण छोटे-से-छोटे जन्तु से लेकर मनुष्य पर्यन्त किसी भी प्राणी की हिमा न तो स्वयं करता है और न दूसरों को ऐसा करने का उपदेश देता है तथा न ही ऐसा करने वाले को अच्छा समझता है। साधु की अहिंसा का स्वरूप आगे चलकर हम साधु के आचार में लिखेंगे। __ करुणावत्सल, महाश्रमण सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान महावीर स्वामी ने इस उपर्युक्त प्रकार की अहिंसा का विश्वके जनसमाज को मात्र उपदेश ही नहीं दिया था किन्तु अक्षरशः उन्होने उसे अपने जीवन में भी उतारा था। निग्गण्ठ नायपुत्त' (भगवान् महावीर स्वामी) ने गृहस्थावस्था को त्यागकर मुनि अवस्था धारण करने के बाद तो इस सिद्धान्त को पूर्णरूपेण अपने जीवन में आत्मसात् किया ही था, किन्तु जब आप गहस्थावस्था में
१. बौद्ध ग्रंथों में श्रमण भगवान महावीर का “निग्गण्ठ नाथपुत्त" के नाम से उल्लेख हुआ है किन्तु जैनागमों में "निग्गण्ठ नायपुत्त" नाम भाता है। हम ने इस निबन्ध में जैन आगमों के अनुसार सर्वत्र "निम्रन्थ जातपुत्त" लिखा है।