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________________ था। वे अपने समाजान बाराबह भी जानते थे कि अभी उनकी आयु सोलह वर्ष और शेष है। वे यह भी अवश्य जानते होंगे कि पिस-ज्वर, रक्तपित्त आदि रोगों के शमन करने के लिये वनस्पति से निष्पन्न निर्दोष और प्रासुक औषधियां भी सुलभ प्राप्य हैं। उनके उस समय लाखों की संख्या में निरामिषाहारी गृहस्थ श्रावक अनुयायी तथा उपासक विद्यमान थे। जब छदमस्थ निबंथ धमण भी मांसाहार का सर्वथा त्यागी होता है तब तीर्थकर भगवान का आचार तो उन निग्रन्थों से भी बहुत उत्कृष्ट था। ऐसी अवस्था में ऐसा पाप-मूलक मांसाहार वे कैसे ग्रहण कर सकते थे? कहना होगा कि प्रभु महावीर पर मांसाहार का दोषारोपण करना चांद पर थूकने के समान है। फिर भी यदि कोई कहे कि रोग के शमन के लिये भगवान ने "मुर्गे का मांस खाया, क्योंकि विवादास्पद सूत्र पाठ के अर्थ से भी ऐसा प्रतीत होता है" तो यह दलीळ भी उनकी युक्ति संगत नहीं है। किसी भी बात का निर्णय करने से पहले इस विषय में लागू पड़ने वाले संयोग तथा आस-पास के संयोगों का विचार करके सत्य निर्णय करना सुज्ञ विद्वानों का साघु कर्तव्य है। हम इस निबन्ध में अनेक स्थलों पर इस बात के अनेक प्रमाण देते आ रहे हैं कि भगवान महावीर ने प्राणि हिला तथा मांसाहार का उग्र विरोध किया था। ऐसे महान् अहिंसक को अपने सिद्धान्त की कदर न हो यह कैसे माना जा सकता है ? (१८) जैन सिद्धान्त के अनुसार (१) भगवान महावीर का बनऋषभनाराच संहनन था। (२) उन्होंने छग्रस्थावस्था में घोरातियोर उपसर्ग तथा परीषहू सह कर भी अपने निर्गय श्रमण के आचारों का दहता पूर्वक पालन किया था। (३) उन्होंने मांसाहार को नरकाति में ले जाने वाला बतलाया है । (४) मांसाहारी को कसाई (घातकहिंसक) कहा है जो कि सर्वका सार्थक है। कसाई सन्द कषायी का प्राकृत पर्यायवाची होता है। इसका अाशय यह हया कि भगवान महावीर के सिद्धान्तानुसार मांसाहार उत्कृष्ट कामायनान व्यक्ति ही कर सकता है।
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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