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________________ ( १७० ) श्रमण भगवान् महावीर के धर्मप्रचार से भी लाखों की संख्या में गृहस्थों ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था और वे बारह व्रतवारी श्रमणोपासक बन चुके थे । जिस से उस समय ये निरामिष भोजी भो सर्वत्र विद्यमान थे । ऐसी अवस्था में भिक्षा पर निर्भर रहने वाले जैन निर्ग्रथ श्रमणों को मांस रहित भिक्षा मिलना असंभव मानना कहाँ तक उचित है ? पाठक स्वयं सोच सकते हैं । व्यक्ति दो कारणों से झूठ बोलता है। अज्ञानवश अथवा रागद्वेषवश । सो कोसाम्बी जी की उपयुक्त धारणा सत्य से कोसों दूर होने के कारण इन दो कारणों में से किसी एक कारण का शिकार अवश्य हुई है। अधिक क्या लिखे । ( १७ ) मनुष्य का उसके विचारों के साथ गहरा सम्बन्ध है । विचारो के अनुसार ही आचार होता है। जो यह मानता है कि आत्मा नहीं है, परलोक नही है, परमात्मा नहीं है उसका आचार प्रायः भोगप्रधान रहता है। जो यह मानता है कि आत्मा है, परलोक है, आत्मा अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःख आदि फल को भोगता है, उसका आचार भोगप्रधान न होकर इसके विपरीत त्यागमय होता है । अतः विचारों का मनुष्य के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ता है । इसलिए किसी के आचार-विचार को जाने बिना उस के विषय में सम्मक निर्णय नहीं किया जा सकता । महात्मा बुद्ध मृत मांस में जीव नहीं मानते थे, किन्तु निग्गठ नायपुत ( श्रमण भगवान् महावीर ) सब प्रकार के प्राण्यंग मांस को त्रस जीवों का पुंज मानते थे । इसलिये जब हम श्रमण भगवान महाबीर के जीवन पर दृष्टिपात करते हैं तो ज्ञात होता है कि वे दीक्षा लेने से पहले गृहस्थाश्रम में ही सचित्त आहार के सब प्रकार से त्यागी हो चुके थे और निग्रंथ श्रमण की दीक्षा लेने के बाद जब वे सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हो चुके थे तब उन्होंने मोहनीय कर्म को सर्वथा नाश कर लिया था । उस समय उन्हें अपने शरीर पर किचिन्मात्र भी मोह नहीं
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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